जनसंख्या राष्ट्रीय सरोकार
संपादकीय
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
बेशक भारत में राज्य अपनी-अपनी जनसंख्या नीति की घोषणा कर सकते हैं और उसे अपने स्तर पर लागू भी कर सकते हैं, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण एक राष्ट्रीय मुद्दा है। यह हमारा प्राथमिक सरोकार होना चाहिए। बेशक आज जनसंख्या-विस्फोट के हालात नहीं हैं। औसतन प्रजनन दर 2 या उससे भी कम है, लेकिन जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है। आज हमारी आबादी 139 करोड़ को पार कर चुकी है, नतीजतन देश के संसाधनों और भौगोलिक क्षेत्र की कमी महसूस की जा रही है। भारत में आबादी का घनत्व बहुत है और लोग बेहद संकीर्ण दायरे में जीने को विवश हैं। सबसे सघन राज्य बिहार है, जहां प्रति वर्ग किलोमीटर में 1106 लोग रहते हैं। बंगाल में इतने ही क्षेत्र में 1028 लोग रहते हैं। प्रदूषण और पेयजल के स्तर पर दिक्कतें हैं। यदि आबादी लगातार बढ़ती रही, तो गरीबी, बेरोजगारी और अपराध भी बढ़ेंगे। औसतन प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आएगी। ऐसे कुतर्कों को खारिज कर देना चाहिए कि बच्चे तो कुदरत की देन हैं। जितनी रूहें धरती पर आनी हैं, उनका आना निश्चित है। दूसरा कुतर्क है कि ज्यादा बच्चे होंगे, तो ज्यादा हाथ काम करेंगे और अर्थव्यवस्था में अपनी भागीदारी निभाएंगे। चीन से जंग लड़ने के मद्देनजर भी आबादी ज्यादा होनी चाहिए। वैसे भी भारत अब ‘बूढ़ा देश’ होता जा रहा है, लिहाजा नई और नौजवान आबादी की भी दरकार है।
बहरहाल जो तबका बढ़ती आबादी का पक्षधर है और राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को मानने को तैयार नहीं है, उसे फिलहाल हाशिए पर ही रखना चाहिए, क्योंकि जनसंख्या नियंत्रण एक बेहद गंभीर सरोकार है। दरअसल आज भी देश के 9 राज्यों में प्रजनन दर 2 से अधिक है। आगामी 15 सालों में इन राज्यों में, बिहार को छोड़ कर, प्रजनन दर का औसत 2 से कम हो जाएगा। कश्मीर, पंजाब, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली, ओडिशा और महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में प्रजनन दर 2 से कम पहले ही बनी हुई है। बिहार में यह दर सबसे अधिक 3.23 है। उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जनसंख्या नीति का जो मसविदा सार्वजनिक किया है, वह कमजोर, पुराना और विध्वंसकारी साबित हो सकता है, क्योंकि सोच अप्रासंगिक है। उससे राष्ट्रीय सरोकार हासिल नहीं किया जा सकता। दरअसल बीता एक दशक हमारी कुल जनसंख्या में गिरावट का गवाह रहा है। प्रजनन की जो दर 3.8 थी, वह घटकर 2.7 हो गई है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन दर 18.5 फीसदी कम हुई है। फिर भी 57 जिले ऐसे हैं, जहां प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र ने एक आकलन दिया था कि 21वीं सदी के अंत तक दुनिया की आबादी करीब 1100 करोड़ के ‘चरम’ पर होगी। वर्ष 2100 में भारत की आबादी घटकर 109 करोड़ पर आ जाएगी। उससे पहले 2048 तक 160 करोड़ के ‘चरम’ को छू लेगी और फिर वहां से गिरावट की शुरुआत होगी। जनसंख्या का अध्ययन करने और नीतियां तय करने वालों को इन रुझानों की भी जानकारी होनी चाहिए।
उप्र के मसविदे में प्रावधान किए गए हैं कि जो 1-2 बच्चों की नीति का उल्लंघन करेंगे, उनके पेशेवर प्रोत्साहन और सार्वजनिक योजनाओं के फायदे छीन लिए जाएंगे। सरकारी नौकरी से बर्खास्त किया जा सकता है। स्थानीय निकाय और पंचायत के चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। जन-प्रतिनिधियों के निर्वाचन रद्द भी किए जा सकते हैं और राशन कार्ड पर मिलने वाले अनाज से भी वंचित किया जा सकता है। उल्लंघन करने वालों को स्कूल, सार्वजनिक स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों से भी महरूम रखा जा सकता है। मसविदे के मुताबिक, इस अभियान का पूरा दारोमदार और भरोसा नौकरशाहों पर जताया गया है। नौकरशाहों ने ही 1975-76 के दौर में परिवार नियोजन कार्यक्रम को बदनाम किया था। लक्ष्य हासिल करने के लिए जबरन नसबंदियां की गई थीं। हालांकि नसबंदी के जरिए परिवार नियोजन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार की ही नीति थी। उस दौरान करीब 80 लाख बधियाकरण के केस दर्ज किए गए थे। इस बार भी अफसरों के भरोसे रहना ही आपदा का कारण बन सकता है, क्योंकि लोगों की जि़ंदगी पर अफसरों का असामान्य नियंत्रण नहीं है। यदि किसी भी स्तर पर जबरदस्ती की गई, तो उसके राजनीतिक फलितार्थ विपरीत हो सकते हैं और वे भाजपा की चुनावी राजनीति पर भारी पड़ सकते हैं। बहरहाल जनसंख्या बेहद संजीदा मुद्दा है। उसे हिंदू-मुसलमान में बांट कर लागू नहीं किया जा सकता। जिस तरह अभी तक जनसंख्या में लगातार गिरावट देखी जा रही है, उन्हीं कार्यक्रमों और अभियानों के बूते लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
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