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लेख - February 2, 2023

पोक्सो एक्ट पर पुनर्विचार की दरकार

-अदित कंसल-

-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-

‘प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट’ (पोक्सो) 2012 में लाया गया था। यह कानून 18 साल से कम उम्र के लडक़े और लड़कियों पर समान रूप से लागू होता है। समझ लीजिए कि इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के लोगों को बच्चा माना गया है और उनके साथ यौन उत्पीडऩ को अपराध माना गया है। संशोधित कानून में 12 वर्ष से कम उम्र वाली बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद आरोपी को फांसी की सजा का प्रावधान है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा है कि न्यायपालिका को पोक्सो एक्ट के तहत सहमति की उम्र को लेकर चल रही बहस पर ध्यान देना चाहिए। पोक्सो एक्ट 18 वर्ष से कम उम्र वालों के मध्य यौन-संलिप्तता को आपराधिक मानता है, यह देखे बिना की नाबालिगों के बीच सहमति थी या नहीं। क्योंकि कानून के अनुसार 18 साल से कम उम्र वालों के बीच सहमति मान्य नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने इस श्रेणी के केस देखे हैं तथा वे जजों के सामने कई सवाल खड़े करते हैं। उन्होंने युवा हेल्थ केयर सेक्टर के विशेषज्ञों की रिसर्च को आधार बनाने का सुझाव दिया। गौरतलब है कि डी. वाई. चंद्रचूड़ ने वर्ष 2018 में अपने पिता पूर्व न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ के 33 साल पुराने फैसले को पलट दिया था। दरअसल जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ ने 1985 में व्यभिचार की धारा 497 को कायम रखते हुए कहा था कि यह असंवैधानिक नहीं है। जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने 2018 में शादीशुदा स्त्री एवं पुरुष को स्वेच्छा के आधार पर शादी से बाहर संबंध की छूट को मान्यता देते हुए इसे संवैधानिक बताया तथा व्यापार की धारा 497 को रद्द किया। कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान कहा कि पोक्सो एक्ट-2012 प्रेम में पड़े किसी टीनएजर को सजा देने के लिए नहीं है।

मामला एक 16 वर्षीय टीनएजर का है जिस पर बलात्कार का केस चल रहा था। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने पोक्सो एक्ट के तहत दर्ज केस को खारिज किया। कर्नाटक हाईकोर्ट ने आरोपी नाबालिग के हित में फैसला सुनाते हुए कहा कि पोक्सो एक्ट क्यों लाया गया था। हमें यह भूलना नहीं चाहिए, लेकिन इस का अर्थ यह नहीं है कि इसका उपयोग हम उन टीनएजर को सजा देने हेतु करें जोकि प्रेमवश ऐसे कामों को कर बैठते हैं जो कि एक्ट में अपराध हैं। जस्टिस एम नागाप्रसन्ना ने कहा कि हर मामला जो कि यौन प्रसंग (सेक्सुअल एक्टिविटी) से जुड़ा है, पोक्सो एक्ट के अंतर्गत नहीं आ सकता। नि:संदेह पोक्सो एक्ट का उद्देश्य नाबालिग बच्चों के यौन उत्पीडऩ को सजा के माध्यम से रोकना है। समाज में प्रतिदिन हमें नाबालिगों के यौन प्रताडऩा व शोषण की खबरें विचलित करती हैं। पोक्सो एक्ट के तहत फॉरेंसिक लैब धर्मशाला के अध्ययन में खुलासा हो चुका है कि प्रदेश की बेटियां अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हंै। प्रदेश के बाल आश्रमों में भी बेटियों के उत्पीडऩ के मामले समाचार पत्रों की सुर्खियां बन चुके हैं। 2017 में चंबा में छात्राओं ने आश्रम के तीन कर्मचारियों पर छेड़छाड़ के आरोप लगाए थे।

इससे पूर्व 2002 में भी आश्रम के एक कर्मचारी ने छात्रा को हवस का शिकार बनाया था। जिला कांगड़ा के गरली में प्रताडऩा का शिकार हो रही बालिकाओं ने बाल कल्याण समिति में छेड़छाड़ के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवाई थी। दिसंबर 2021 में चेन्नई में एक नाबालिग लडक़ी जोकि 11वीं कक्षा की छात्रा थी, ने यौन उत्पीडऩ से तंग आकर पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली। उसका सुसाइड नोट बेहद भावुक तथाकथित समाज को आईना दिखाने वाला था : ‘स्टॉप सेक्सुअल हरासमेंट, न तो शिक्षकों पर भरोसा करो न ही रिश्तेदारों पर….लड़कियों के लिए तो बस मां की कोख और कब्र ही सुरक्षित रह गई है।’ स्पष्ट रूप से पोक्सो एक्ट के तहत सोलन व शिमला में दुराचारी कलयुगी बाप, नाहन में फूफा, बिलासपुर में चाचा, निरमंड में भांजा व दोषी शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई अमल में लाई गई। आवश्यक है कि पोक्सो एक्ट को अधिक व्यावहारिक बनाया जाए तथा विद्यालयों, महाविद्यालयों, संस्थानों में यौन हिंसा से बचाने के लिए बेटियों के साथ-साथ लडक़ों को भी जागरूक किया जाए। हम यह सच अस्वीकार नहीं कर सकते हैं कि बाल और यौन शोषण में आधे से ज्यादा दुष्कर्म पीडि़त लडक़े हैं। बच्चों को सेफ अनसेफ टच के बीच फर्क बताना आवश्यक है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि आरोपी और पीडि़ता के बीच स्किन-टू-स्किन का सीधा संपर्क नहीं हुआ है तो पोक्सो एक्ट के अधीन यौन उत्पीडऩ का कोई अपराध नहीं बनता है।

सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि टच के अर्थ को स्किन-टू-स्किन तक सीमित करने से पोक्सो कानून की बेहद संकीर्ण और बेहूदा व्याख्या निकलकर आएगी तथा इससे इस कानून का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कपड़ों के ऊपर से भी बच्चों को गलत नीयत से छूना भी पोक्सो एक्ट में आता है। बच्चों को यौन अपराधों, शोषण, प्रताडऩा व उत्पीडऩ से बचाने के लिए पोक्सो एक्ट के अधीन विशेष कार्रवाई की व्यवस्था तो है, पर आंकड़े बताते हैं कि मामलों की निस्तारण गति बेहद धीमी है और अभियुक्तों की सजा दर भी दूसरे अपराधों के वनिस्बत कम है। पोक्सो में मामला निपटाने में औसत समय 509 दिन का लगता है। समय की मांग है कि बच्चों से जुड़े यौन हमलों की वारदातों को फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा तीव्रता से हल किया जाए। हिमाचल प्रदेश के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री ने जिस प्रकार से बाल आश्रमों में रह रहे अनाथ बालक-बालिकाओं के प्रति संजीदगी एवं संवेदनाएं दिखाई हैं, वह काबिले-तारीफ है। इससे बाल सुरक्षा को बल मिलेगा। बच्चों की सुरक्षा हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी एवं कत्र्तव्य है। अध्यापकों, अभिभावकों, महिला मंडलों, पंचायतों, यूथ क्लबों, संस्थानों को मिलकर बाल हितैषी समाज की संरचना करनी है। मां-बाप एवं अध्यापकों को चाहिए कि बच्चों से निरंतर संवाद रखें। बच्चों की चुप्पी बहुत कुछ कहती है। उनके साथ अपनत्व मित्रता का व्यवहार रखें। सुरक्षित बच्चे ही सशक्त समाज और देश का निर्माण कर सकते हैं।

 

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