जातिगत जनगणना का जिन्न
-सिद्वार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
बिहार की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिली, जहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव दोनों किसी एक मुद्दे पर एकमत हो। ये मुद्दा है जातिगत जनगणना का है। दोनों नेता आपसी मतभेद को भुलाकर केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना कराने के लिए गुहार लगाते लगाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने तक पहुंच गए हैं। नीतीश के इस रुख से बिहार में एनडीए सरकार की प्रमुख सहयोगी भाजपा पसोपेश में है और वह पार्टी की रणनीति के तहत जनसंख्या नियंत्रण कानून की हिमायत कर रही है। दरअसल, सारा खेल अन्य पिछड़ी जातियों के वोट बैंक का है। इनकी आबादी 52 फीसद बताई जाती है। राजनीतिक दलों के बीच ओबीसी के सच्चे हितैषी का क्रेडिट लेने की होड़ लग गई है। भारत में आखिरी बार 1931 में जातिगत आधार पर जनगणना की गई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण 1941 में आंकड़ों को संकलित नहीं किया जा सका था। आजादी के बाद 1951 में इस आशय का प्रस्ताव तत्कालीन केंद्र सरकार के पास आया था, लेकिन उस समय गृह मंत्री रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कहते हुए प्रस्ताव खारिज कर दिया था कि इससे समाज का ताना-बाना बिगड़ सकता है। 1951 के बाद से लेकर 2011 तक की जनगणना में केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति से जुड़े आंकड़े प्रकाशित किए जाते रहे। 2011 में इसी आधार पर जनगणना हुई, किंतु अपरिहार्य कारणों का हवाला देकर इसकी रिपोर्ट जारी नहीं की गई। कहा जाता है कि करीब 34 करोड़ लोगों के बारे में जानकारी गलत थी। कमोबेश, हर जनगणना के पहले जातीय जनगणना की मांग की जाती रही है। किंतु, बिहार विधानसभा में पहली बार 18 फरवरी, 2019 में तथा फिर 27 फरवरी, 2020 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर मांग की गई कि 2021 में होने वाली जनगणना जाति आधारित हो। एक बार फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर इस पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है। दरअसल, ओबीसी की आबादी का सही आंकड़ा मिलने से क्षेत्रीय दलों को राजनीति का नया आधार मिल सकता है। क्षेत्रीय दल हमेशा से जातीय जनगणना की मांग करते रहे हैं। किंतु, इस मुद्दे पर केंद्र में रही कोई भी सरकार अपने हाथ नहीं जलाना चाहती है। इसलिए 2010 में जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी तब भी मांग उठी थी, मगर हुआ कुछ नहीं। सभी सरकारों को आशंका है कि जाति आधारित जनगणना के बाद तमाम ऐसे मुद्दे उठेंगे, जिससे देश में आपसी भाईचारा व सौहार्द बिगड़ेगा तथा शांति व्यवस्था भंग होगी। जिस जाति की संख्या कम होगी, वे अधिक से अधिक बच्चे की वकालत करेंगे। इससे समाज में विषम स्थिति पैदा होगी। दरअसल जाति आधारित जनगणना का समर्थन जेडीयू के साथ-साथ एनडीए के अन्य सहयोगी दल हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के प्रमुख जीतन राम मांझी और महाराष्ट्र के नेता रामदास अठावले भी कर चुके हैं। हालांकि भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि जातिगत आधारित जनगणना से हिंदू समाज में मतभेद हो सकते हैं और सामाजिक सद्भाव बिगड़ सकता है इसलिए फिलहाल जाति आधारित जनगणना की कोई जरूरत नहीं है। दरअसल भाजपा का हिंदुत्व अब ओबीसी और अति पिछड़ी जातियों के सहारे चल रहा है। पहले दक्षिण भारत और बाद में उत्तर भारत के करीब हर राज्य में पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बहुत ताकतवर संगठन बन चुके हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रिमंडल विस्तार में इस तबके को सबसे ज्यादा महत्व दिया है, पर जातिगत जनगणना की मांग ओबीसी जातियों द्वारा होती रही है. ओबीसी की राजनीति करने वाले करीब सभी नेता कभी न कभी जातिगत जनगणना की मांग कर चुके हैं। बस भाजपा के लिए मुश्किल यही खड़ी हो रही है कि जाति आधारित जनगणना को न सपोर्ट करके उनके साथ कहीं धोखा न हो जाए।
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