भारत बंद -विरोधाधिकार-चुनौती- जनसंकट और समाधान
-निर्मल रानी-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा तीन नए कृषि कानूनों के विरुद्ध दूसरी बार आहूत ‘भारत बंद’ का गत 27 सितंबर को राष्ट्रव्यापी प्रभाव देखने को मिला। सत्ता अर्थात भारतीय जनता पार्टी प्रवक्ता ने इसे ‘अराजक तत्वों’ द्वारा किया गया अराजकता पूर्ण विरोध प्रदर्शन तथा विपक्षी दलों द्वारा किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना आदि बताया तो किसानों ने इसे अपने आंदोलन की राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता, सफलता व आंदोलन को पूरे देश से मिलने वाले व्यापक समर्थन के रूप में देखा। इससे पूर्व किसानों ने इसी वर्ष 26 मार्च को भी इसी विषय को लेकर भारत बंदका आह्वान किया था जिसका प्रभाव पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाकों में पड़ा था। उस समय सरकार के नुमाइंदों ने इसे ‘असफल’ भारत बंद बताया था। सत्ता पक्ष के लोग अक्सर यह कहते रहे हैं कि कृषि कानूनों के विरुद्ध कुछ मुट्ठी भर किसानों द्वारा यह विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है। हालांकि भाजपा के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंधित भारतीय मजदूर संघ सहित सत्ता से संबंधित अनेक नेता, मंत्री, सांसद, विधायक यहां तक कि राज्यपाल द्वारा भी किसानों के पक्ष में अपने विचार रखे जा रहे हैं।
किसानों द्वारा गत दस महीनों से लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के अपने अधिकारों के नाम पर गत दिनों दूसरी बार ‘भारत बंद ‘ का जो आह्वान किया गया था वह 26 मार्च के भारत बंद की तुलना में कहीं ज्यादा सफल व व्यापक रहा। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा से लेकर राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु सहित देश के 25 से भी अधिक राज्यों में भारत बन्द का व्यापक प्रभाव देखा गया। देश के अधिकांश राष्ट्रीय राजमार्ग प्रातः 6 बजे से लेकर शाम चार बजे तक बन्द अथवा बाधित रहे। देश में कई स्थानों पर रेलवे सेवायें भी बाधित रहीं। निःसंदेह इस 27 सितंबर के भारत बंद को अभूतपूर्व सफलता मिलने का कारण यही था कि न केवल इस आंदोलन का अब राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार हो चुका है बल्कि इसबार इसे लगभग सभी विपक्षी दलों, मजदूरों, कामगारों व छात्रों का भी पूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ।
किसानों द्वारा अपने लोकतान्त्रिक विरोधाधिकार के नाम पर किये जाने वाले इस बंद की सफलता को लेकर यह कहा गया कि यह सत्ता की उस चुनौती का जवाब है जिसमें वह कहा करती है कि यह सीमित क्षेत्र के मुट्ठी भर सरमायेदार किसान आंदोलनरत हैं। राष्ट्रविरोधी, खालिस्तानी व मवाली किस्म के किसान जैसी उपाधियों से नवाजने वाली सत्ता को इस बंद के माध्यम से जवाब दिया गया है। धर्म जाति व क्षेत्र के नाम पर किसानों व आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश करने वाली सरकार को इस बंद के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी है कि यह आंदोलन देश के ‘अन्नदाताओं’ का राष्ट्रव्यापी आंदोलन है जो तीनों कृषि कानूनों के वापस लिये बिना समाप्त नहीं होने वाला। जिस आंदोलन में दुधमुंहे बच्चे से लेकर सौ वर्ष से अधिक उम्र वाले अनेक बुजुर्ग डटकर सत्ता को चुनौती दे रहे हों, बहुमत के नशे में चूर सत्ता द्वारा उस आंदोलन को कमजोर या हल्का समझना निश्चित रूप से उसकी बड़ी भूल है।
परन्तु इस प्रकार के भारत बंद से आम जनता को भी भारी परेशानी व जनसंकट का सामना करना पड़ता है। देश अब तक किसानों के इस भारत बंद के अलावा भी विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जनसमस्याओं को लेकर या सत्ताविरोधी स्वर बुलंद करने के लिये सैकड़ों बार भारत बंद का सामना कर चुका है। और हर बार जनता को ट्रैफिक या जाम में फंसकर परेशानी का सामना करना पड़ा है। कई कई घंटों के जाम तो दिल्ली व आसपास के शहरों, महानगरों तथा देश के प्रमुख शहरों में बिना भारत बंद के ही आये दिन लगते रहते हैं। बारिश में भी जगह जगह लंबे समय तक जाम लगने की खबरें अक्सर सुनाई देती हैं। उस समय मीडिया आंशिक रूप से ऐसे जाम की खबरें तो जरूर देता है परन्तु उसके कारण व उनका जिम्मेदार कौन है इन बातों पर रौशनी नहीं डालता। जबकि किसानों द्वारा अपने व देश की जनता के हितों के मद्देनजर किये जा रहे ऐसे आंदोलनों में ‘गोदी मीडिया’ किसानों पर दोष मढ़ने की कोशिश करता है तथा इस किसान आंदोलन को ‘शाहीन बाग ‘ आंदोलन के धरने से जोड़ने की कोशिश करता है।
भारत बंद की सफलता और इसे मूक दर्शक बने रहकर देखने की देश व राज्य सरकारों की मजबूरी यह साबित करती है कि पूर्ण बहुमत की यह सरकार उसके अनुसार ‘मुट्ठी भर किसानों’ के भारत बंद रुपी राष्ट्रव्यापी विरोध के आगे शक्तिहीन व असहाय रही। सरकार उस विपक्ष की रणनीतियों के आगे भी असफल दिखाई दी जिसपर वह किसानों को भड़काने व गुमराह करने का भी आरोप लगाती है साथ साथ उसी विपक्ष को मृत प्राय, कमजोर और कांग्रेस के लिये तो खासकर ‘कांग्रेस मुक्त भारत ‘ जैसे शब्दों का भी प्रयोग करती रहती है। कांग्रेस के अतिरिक्त बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, वामपंथी दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(एन सी पी ) आम आदमी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल समेत दक्षिण भारत के कई राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता बंद के दौरान भारत बंद को सफल बनाने के लिये सड़कों पर उतरे नजर आए। भारत बंद की सफलता ने यह साबित कर दिया कि देश का किसान भी संगठित है और विपक्ष का भी किसानों को सर्वसम्मत व पूर्ण समर्थन हासिल है।
सरकार को इस भारत बंद से सबक लेने की जरुरत है। अपने किसान विरोधी व जनविरोधी फैसलों को संसद में बहुमत के आंकड़ों व रणनीतिपूर्ण चुनावी परिणामों से जोड़कर देखना सत्ता की भूल है। सरकार को महसूस करना चाहिये कि जहाँ सी ए ए व एन आर सी तथा तीन तलाक जैसे उसके कानून भारतीय समाज में उसकी सामाजिक विघटन की सोच को उजागर करते हैं उसी तरह तीन नए कृषि कानून व राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (छळज्) द्वारा निर्मित अनेक नियम कानून पूर्णतयः कृषक विरोधी हैं और यह सरकार की पूंजीवाद सोच को भी प्रतिबिंबित करते हैं। सरकार को यह भी सोचना चाहिये कि क्या वजह है कि सत्ता में आने के बाद उसके द्वारा एक के बाद एक लिये जा रहे नोटबंदी व जी एस टी जैसे तानाशाही पूर्ण फैसले आखिर क्योंकर जनता को बेचैन कर रहे हैं। टीकाकरण अभियान का ढिंढोरा पीट व इसके कथित कीर्तिमान को लेकर अपनी पीठ थपथपा कर सरकार नदियों किनारे तैरती लाशों व ऑक्सीजन की कमी से तड़प कर मरने व चीखने चिल्लाने वाले दृश्य देशवासियों की नजरों से ओझल नहीं कर सकती। किसान संगठन बार बार कह रहे हैं कि जब तक किसान विरोधी तीनों कानून वापस नहीं लिए जाते और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी ) की गारंटी देने वाला कानून नहीं बन जाता तब तक उनका आंदोलन व संघर्ष जारी रहेगा। ऐसे में अब सरकार को तय करना है कि वह किसानों से टकराने की अपनी झूठी-सच्ची रणनीति पर कायम रहना ही पसंद करती है या अपने अहंकार को समाप्त कर किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर पहुँच कर देश को धरने, प्रदर्शनों व जाम तथा बंद आदि से निजात दिलाने की दिशा में यथाशीघ्र कोई सार्थक कदम उठती है।
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