आंदोलन का रुख
-सिद्वार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
दिल्ली के सिंघू बॉर्डर से लेकर टीकरी बॉर्डर और यहां तक कि गाजीपुर बॉर्डर पर भी किसानों का जमावड़ा अब भी है। कभी टेंट बढ़ते तो कभी घटते हैं, कभी ट्रैक्टरों की संख्या बढ़ जाती तो कभी घट जाती है, किसानों की तादाद भी घटती-बढ़ती रहती है, आंदोलन की रूपरेखा भी काफी कुछ बदल गई, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वो है किसानों का रुख, जो अब भी कहते हैं कि जब तक उनकी मांगें मानी नहीं जाती, तब तक वो बॉर्डर खाली नहीं करेंगे। पिछले माह जब केंद्र सरकार ने एमएसपी में बढ़ोतरी की थी, तो लगा था कि किसान आंदोलन का रास्ता छोड़ेंगे और नए कानूनों पर भरोसा जताएंगे, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। आंदोलन का दिन लगातार बढ़ता जा रहा है और सहमति की गुंजाइश उसी तरह खत्म होती जा रही है। आंदोलन का समाधान क्या हो, यह बहस का विषय जरूर है। यह अपने आप में विचित्र है कि एक ओर किसान अपनी मांगों को लेकर आज भी मोर्चे पर डटे हैं, दूसरी ओर सरकार ने इस मसले पर जो रुख अख्तियार किया हुआ है, वह समस्या के किसी ठोस हल तक पहुंचने का रास्ता नहीं लगता। सवाल है कि किसान जिन सवालों को केंद्र में रख कर आंदोलन कर रहे हैं, क्या वह सही है। दरअसल, किसानों की एक सबसे अहम मांग यह है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने को लेकर एक विशेष कानून बनाए। इस लिहाज से सरकार कह सकती है कि उसने खरीफ फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी करके किसानों के हित में ठोस कदम उठाया है और ऐसा करके उसने आंदोलन कर रहे किसानों को सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। यह गौरतलब है कि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की घोषणा हर साल का एक नियमित अभ्यास रहा है। इसके तहत साल भर में दो बार फसलों पर इस तरह के समर्थन मूल्य में इजाफे की घोषणा होती है।
हालत यह है कि पिछले कई महीने से सरकार और किसान आंदोलन के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत का दौर तक बंद है। इसके बावजूद किसान तीनों नए कृषि कानूनों को खत्म करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी सुनिश्चित करने वाले कानून की अपनी मांग पर कायम हैं। यों करीब चार महीने के बाद अब सरकार को एक बार फिर ऐसा लगने लगा है कि किसानों से वार्ता शुरू होनी चाहिए तो इससे थोड़ी उम्मीद जरूर बंधती है। लेकिन केंद्रीय कृषि मंत्री की ओर से आए इस बयान में जिस तरह शर्त आधारित बातचीत शुरू करने के संकेत मिलते हैं, उससे साफ है कि इस मसले पर किसी हल तक पहुंचने में शायद वक्त लगे।
दरअसल, पिछले सात महीने के दौरान सरकार अक्सर यह कहती रही है कि किसानों को आंदोलन की मांगों को लेकर तार्किक आधार पर बात करनी चाहिए। सवाल है कि अब तक सरकार की ओर से ऐसे तर्क क्यों नहीं रखे गए हैं, जो किसानों को सहमत कर दे और वे अपना आंदोलन वापस ले लें। जाहिर है, तीनों नए कृषि कानूनों के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने वाला कानून बनाने के मुद्दे पर सरकार ने ऐसा कोई प्रस्ताव सामने नहीं रखा है, जिस पर किसान अपनी मांगों के संदर्भ में विचार करने पर तैयार हों। हालांकि केंद्रीय कृषि मंत्री के लगातार दूसरी बार संकेत के जरिए सरकार यह दर्शाना चाहती है कि वह इस मसले पर गंभीर है। लेकिन धान सहित खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मू्ल्य में ताजा बढ़ोतरी को किसान आंदोलन की मांगों के प्रति सरकार के रुख में लचीलेपन के तौर पर देखना शायद जल्दबाजी होगी।
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