क्या लोकतांत्रिक आस्था में कमी आ रही है….?
-ओम प्रकाश मेहता-
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
आजादी के 75 साल में यह एक चौंकने वाला सवाल सामने आया है कि क्या हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था में कमी आती जा रही है? भारत का आम मतदाता अपनी निजी उलझनो या स्वार्थ परख कार्यों में इतना उलझ गया है कि उसमें देशभक्ति का लोप हो गया, आज स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस भी केवल औपचारिक बनकर रह गए, फिर एक प्रश्न का सीधा संबंध हम भारतीयों में मतदान के प्रति घटती रुचि से भी उजागर हो रहा है। अब हमारे राष्ट्रीय दिवस और मतदान तिथि केवल अवकाश की मौज-मस्ती तक ही सिमट कर रह गए हैं और राष्ट्रभक्ति के प्रति यह उदासीनता का संचार केवल हम तक ही सीमित नहीं होकर हमारी नई पीढ़ी तक भी हो रहा है, हमने ना तो हमारी नई पीढ़ी को देशभक्ति या हमारे शहीदों का कोई पाठ पढ़ाया ना ही देशभक्ति का कोई ज्ञान दिया, उन्हें सिर्फ उनके भविष्य संवारने तक ही हम सीमित रहे हैं, ऐसे में नई पीढ़ी में राष्ट्रभक्ति का जज्बा आखिर कैसे पैदा होगा। यह स्थिति काफी चिंतनीय है, आंज ना में देश की चिंता है और ना ही उसके प्रति हमारे कर्तव्य की, हम सिर्फ हमारे अधिकार ही जानते हैं, जिन्हें हम हर स्थिति में हासिल करना चाहते हैं। कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि हम अपने आप में हर दृष्टि से स्वार्थी हो गए हैं, तो कतई गलत नहीं होगा।
प्रजातंत्र की मूल पहचान निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनाव प्रक्रिया है, क्या हम उसका पालन भी ठीक से कर रहे हैं? आजकल कैसे चुनाव लड़े जाते हैं और कैसे जीते जाते हैं, क्या यह किसी से भी छिपा है, अब तो हमारे राजनेताओं का एकमात्र जीवन उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीत कर सत्ता हासिल करना रह गया है और एक बार सत्ता प्राप्त कर अगली सात पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करना रह गया है, फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ भी वाजिब गैर-वाजिब क्यों ना करना पड़े? यहां यदि यह भी कहा जाए कि प्रजातंत्र का मूल आधार प्रजा भी पिछले सात दशकों में प्रजातंत्र के कर्तव्य व अधिकारों के प्रति प्रशिक्षित नहीं हो पाई, इसका भी एक मात्र कारण व्यक्तिगत स्वार्थ रुचि है, आज हमारी प्राथमिकताओं में देश व राष्ट्र सबसे आखिर पायदान पर है, ऐसे में कोई राष्ट्रभक्त कैसे हो सकता है? प्रजातंत्रिय देश में प्रजा की भूमिका अहम होती है, जो वह मतदान के जरिए प्रकट करती है, लेकिन यह कितने दुख की बात है कि हमारे देश में मतदान के प्रति रुचि दिनों-दिन कम होती जा रही है, हमारे देश में आजादी के बाद जब 1952 में पहली बार मतदान हुआ था तो देश के उस समय में कुल 17 करोड़ मतदाताओं मे से साढ़े दस करोड़ ने मतदान किया था, जबकि उस समय साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम था और 83 फ़ीसदी जनता अशिक्षित थी, फिर भी पहले मतदान ने सारे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया था, किंतु आज की क्या स्थिति है? आज हमारी शिक्षित दर 1952 की पूरी तरह उलट है, अर्थात उस समय 83 फ़ीसदी लोग अशिक्षित थे तो आज 83 फ़ीसदी शिक्षित है, आज देश में 98 करोड़ मतदाता है और इनमें से 30 करोड़ मतदाता वोट डालने ही नहीं आते अर्थात 32 से 37% वोटरों को अपने मताधिकार का उपयोग करने की फुर्सत ही नहीं है? वे मतदान दिवस के अवकाश की मौज मस्ती में डूबे रहते हैं, यह देश भक्ति के प्रति रुचि का सबसे अहम् पैमाना है, अब जब हमारे दिल दिमाग से राष्ट्रभक्ति का लोप ही हो गया है तो फिर देश पर कैसे लोग चुनाव जीतकर देश पर राज करेंगे, यह बताने की जरूरत नहीं रह गई है।
आज का यह सबसे अधिक चिंताजनक प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजने की किसी को कोई फुर्सत नहीं है और जब हमें फुर्सत नहीं है तो फिर हम हमारी अगली पीढ़ी से ऐसी देशभक्ति संबंधी अपेक्षाएं कैसे कर सकते हैं? क्या अब देश की आजादी के इस 75 वें वर्ष में भी नागरिकों को उनके अधिकारों व कर्तव्यों के बारे में समझाना जरूरी है? यह एक चिंतनीय स्थिति है और इस पर आज देश के हर नागरिक के लिए आत्म चिंतन बहुत जरूरी है।
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