भीख अस्तित्व के लिए
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
सर्वोच्च न्यायालय ने भीख और भिखारियों पर एक बेहद संवेदनशील और मानवीय फैसला सुनाया है। भीख कोई पसंदीदा पेशा नहीं है। वह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है। शिक्षा और रोजगार के अभाव में भीख मांगना एक विवशता है, क्योंकि व्यक्ति और परिवार के अस्तित्व का सवाल है। बुनियादें जरूरतें भी पूरी करनी हैं। रोटी भी खानी है, लिहाजा जब जि़ंदगी विकल्पहीन हो जाए, तो आदमी के लिए भीख मांगना एक इनसानी मजबूरी है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर.शाह की न्यायिक पीठ ने भीख मांगने और भिखारियों के संदर्भ में जो कुछ कहा है, उपरोक्त वाक्य उसी का सारांश हैं। सुप्रीम अदालत ने साफ कहा है कि वह सड़कों, चैराहों और सार्वजनिक स्थलों से भिखारियों को हटाने का आदेश नहीं दे सकती। भीख पर प्रतिबंध भी थोपा नहीं जा सकता, क्योंकि वह निराश्रित और असहाय जमात है, जिसके पास आर्थिक रोजगार का कोई जरिया नहीं है।
न्यायिक पीठ ने संभ्रांत वर्ग का नजरिया भी अपनाने से इंकार कर दिया। इस तरह शीर्ष अदालत ने सरकारों और संसद के मंथन के लिए एक बेहद मानवीय और सामाजिक कल्याण का मुद्दा उछाल दिया है। भिखारी भारत में ही नहीं, अमरीका और यूरोप सरीखे विकसित देशों में भी हैं। उनका भीख मांगने का तरीका भिन्न है। वे अपने कुत्तों के नाम पर भीख मांगते हैं। यह दीगर है कि उन देशों में सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था है और भारत में शिक्षा तथा रोजगार की बुनियादी, संवैधानिक जरूरतों की भी गारंटी नहीं है। नई परिभाषा के साथ ‘गरीबी हटाओ’ के प्रयास सरकारें कर रही हैं और रोजगार मुहैया कराने के मोटे-मोटे दावे भी किए जाते रहे हैं, लेकिन भिखारी हमारी व्यवस्था की सामाजिक-आर्थिक नीतियों के बदसूरत यथार्थ हैं। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक, 4,13,670 भिखारी हैं। उनमें पुरुष और महिलाएं दोनों ही शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल में सर्वाधिक 81,224 भिखारी हैं और उप्र में यह गिनती 65,835 है। देश की राजधानी दिल्ली में भी 2187 भिखारी हैं। चूंकि ये आंकड़े 10 साल पुराने हैं, लिहाजा भिखारियों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी होगी। निष्कर्ष 2021 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद ही सामने आएगा। यह खुलासा तत्कालीन केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने राज्यसभा में किया था। दिलचस्प है कि भीख के खिलाफ या उसके मद्देनजर भारत में कोई भी केंद्रीय कानून नहीं है। हालांकि देश के 20 राज्यों और 2 संघशासित प्रदेशों के अपने भीख रोधी कानून हैं। बॉम्बे भीख निरोधक कानून ही इन कानूनों का बुनियादी आधार है। वह पुलिस और सामाजिक कल्याण विभागों को अनुमति देता है कि बेघर लोगों को सिर्फ पकड़ा जाए और जो बिल्कुल निराश्रित हो, उसे हिरासत-केंद्र में भेजा जाए, लेकिन निर्मूलता और दस्तावेजों के अभाव में स्थानीय प्रशासन के लिए यह आसान नहीं है कि वह अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी से ही पल्ला झाड़ ले। केंद्र सरकार ने भी भीख को गैर-आपराधिक बनाने के मद्देनजर एक बिल का मसविदा तैयार किया था, लेकिन सरकार स्वैच्छिक और गैर-स्वैच्छिक भीख के अंतर में ही उलझ कर रह गई।
ताजा कानूनी स्थिति क्या है, न्यायिक पीठ ने भी उसका उल्लेख नहीं किया। कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी रेखांकित किया था कि कोई भी व्यक्ति भीख मांगना पसंद नहीं करता या अन्य रोजगार से भागना नहीं चाहता। दरअसल भीख मांगने में बहुत प्रयास करने पड़ते हैं, गिड़गिड़ाना पड़ता है, गुहार करनी पड़ती है, तब कुछ पैसा भीख में मिल पाता है। यह समस्या गरीबी, भूमिहीनता, भेदभावपूर्ण नीति, अयोग्यता और शिक्षा-रोजगार के अभाव की कई व्याख्याएं करती है। यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। अभी तो कई ऐसे तथ्य हैं, जो भिखारियों के अपराधी और कामचोर होने की तरफ भी संकेत करते हैं। अदालत के संज्ञान में उन्हें नहीं लाया गया। वे रोजमर्रा के जीवन के अनुभव हैं। आमतौर पर महिलाएं शिशु को गोद में लेकर भीख मांगती हैं, लेकिन उन्हें काम की पेशकश देने पर वे गालियां देने लगती हैं। पुरुषों के संदर्भ में यह देखने को मिला है कि अच्छी कद-काठी के पुरुष भी भीख मांगते हैं। कई स्थानों पर ऐसे भिखारी समूह बनाकर अपराध भी करते हैं। हत्याओं के मामले भी सामने आए हैं। बेशक भीख सामाजिक-आर्थिक समस्या है, लेकिन अदालत को आपराधिक हरकतों पर भी टिप्पणी करनी चाहिए अथवा सरकारों को निर्देश देने चाहिए।
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