महंगाई की व्यथा
-पूरन सरमा-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
उस दिन महंगाई बहुत क्षुब्ध थी। मिलते ही जोर-जोर से रो पड़ी। मैं उसे आश्चर्यचकित देखता रह गया और हैरानी से बोला, ‘क्यों, तुम्हें रोने की क्या जरूरत है? रोयें तुम्हारे कारण सताए लोग।’ ‘यही तो मेरा दर्द है। सच, मेरे दर्द को कोई नहीं समझेगा। दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रही हूं। यह भी कोई जीवन है, जिसमें बदनामी के सिवा कुछ न मिले।’ महंगाई बोली। ‘लेकिन तुम महंगाई हो, तुम्हारी शान इसी में है कि तुम निरंतर फलती-फूलती रहो।’ मैं उसके आंसुओं को पोंछकर बोला तो वह बिफर पड़ी, ‘रहने दो आदमी! कल तुम मुझे गाली दे रहे थे और आज मेरे आंसू पोंछ रहे हो। गैस सिलेंडर वाले को पैसे देते हुए कल तुम कितने बिगड़े थे और तुमने मुझे कितना कोसा था।
तो क्या मैं इसी तरह आदमी से कोसी जाती रहूं? सच है अबला को सदैव दुनिया के लोग इसी तरह शोषित करते रहे हैं।’ ‘देखो बहन, ऐसी कोई बात नहीं है। सरकार को कीमतें विकास के लिए बढ़ानी ही पड़ती हैं। जिस देश के नागरिक महंगाई के बावजूद मर-खपकर यदि क्रय करते रहते हैं तो यह उसकी प्रगति का द्योतक है, गरीबी मिटाने का आंकड़ा इसी से साफ होता है। फिर यह भी है कि जिन चीजों को गरीब को खरीदना ही नहीं, उनसे भला वह क्यों ग्रस्त होगा, तुम्हें वहम है कि तुम बदनाम हो रही हो। पता भी है जिस दिन भाव गिर जाएंगे, उस दिन तुमसे कोई बात भी नहीं करेगा।’ मेरी बात का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा-बोली, ‘रहने दो आदमी, तुम चालाक हो। मुंह देखकर तिलक करते हो। मैं मिल गई तो मेरी बात, मैं नहीं तो मेरी बगावत।’ ‘वहम की कोई दवा नहीं है महंगाई मैडम, तुम्हारे बारे में बात करना केवल फैशन है।
आम आदमी को क्या लेना-देना तुमसे? यह तो सत्तारूढ़ दल तुम्हारा झुनझुना विपक्ष को थमाकर खुद मौज मारता है। तुम राजनीति की शिकार हो दरअसल।’ मैंने कहा। महंगाई की आंखों में चमक आई और वह बोली, ‘अब समझे आदमी तुम मेरी बात को। मेरा यही तो दर्द है कि मैं इस राजनीति के चुंगल से कब-कैसे मुक्त हो पाऊंगी?’ ‘तुम्हारा और राजनीति का तो अब चोली-दामन का साथ है। परेशान होने से कुछ नहीं होगा। हो सके तो उससे पूरी तरह समन्वय कर लो। दुखी रहने की नियति से सारा जीवन नरक बना बैठोगी मैडम।’ ‘लेकिन मेरे अकेले के कारण लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन नरक हो रहा है। अच्छा हो मैं अकेली इस नरक में सड़ती रहूं। आम आदमी को राहत मिलेगी।’ महंगाई अत्यंत विरक्त भाव से बोली। ‘लेकिन आज तुम कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो। इससे पहले तो तुमने कभी भी इतनी पीड़ा जाहिर नहीं की। आखिर बात क्या है?’ मैंने पूछा। ‘सच तो यह है आदमी मैं इस जीवन से ऊब गई हूं। मेरे लिए आंदोलन-हड़ताल-प्रदर्शन हो। बेकसूर मरें-पिटें, यह कहां की बात है! वोट के जाल में मुझे इतना उलझा रखा है कि मैं किसी भी तरह मुक्त नहीं हो पा रही। विपक्षी आंदोलन महज इसीलिए करते हैं ताकि जनता में उनका प्रभाव जम सके।’
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