कूटनीति पर सियासत नहीं
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
कूटनीति एक सीधी-सरल लकीर नहीं है। टेढ़े-मेढ़े और पथरीले रास्ते होते हैं। अनचाहे संवाद भी अपरिहार्य हैं। कूटनीति पर सरकार के फैसलों और नीतियों को लेकर सियासत तार्किक नहीं है, क्योंकि मसले घरेलू नहीं, अंतरराष्ट्रीय होते हैं। बेशक भारत सरकार में राजनीतिक नेतृत्व बदल जाए, लेकिन विदेश नीति और कूटनीति में कमोबेश निरंतरता रहती है। भारत के प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान के साथ युद्धों के बावजूद संवाद और समझौते किए हैं। इतिहास साक्षी है। जब वाजपेयी सरकार के दौरान विमान का अपहरण कर लिया गया था और यात्रियों की जिंदगी के एवज में मसूद अजहर जैसे खूंख्वार आतंकी को रिहा करने का सौदा करना पड़ा था, तालिबान से तब भी बातचीत और सौदेबाजी करनी पड़ी थी। विपक्ष ने एकजुट होकर सरकार के निर्णय का समर्थन किया था। तब सोनिया गांधी नेता प्रतिपक्ष थीं। 1989 में देश के गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की अपहृत बेटी को छुड़ाने और सकुशल घर-वापसी के बदले में आतंकियों से बात करनी पड़ी थी और आतंकी जेल से रिहा भी किए गए थे। मौजूदा संदर्भ में तालिबान नेता शेर मुहम्मद अब्बास के साथ कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल के संवाद को भारत सरकार का आत्म-समर्पण न मानें और न ही सियासी दुष्प्रचार करें। यह देशहित में नहीं है। भारत विभाजित नहीं लगना चाहिए।
सियासत के भरपूर मौके मिलते रहेंगे। बीते दिनों सर्वदलीय बैठक सर्वसम्मत सम्पन्न हुई थी। विपक्ष ने सरकार के निर्णयों पर भरोसा जताया था। उसके बाद अब ऐसा क्या हुआ है कि विपक्ष अफगानिस्तान और तालिबान के साथ बातचीत को लेकर कपड़े फाडने पर आमादा है? दुर्भाग्य से तालिबान का आज एक देश पर कब्जा है। उनकी हुकूमत बनने की प्रक्रियाएं जारी हैं। अफगानिस्तान के साथ भारत के प्राचीन, सांस्कृतिक, कारोबारी और इनसानी रिश्ते रहे हैं। वहां आज भी भारतीय बसे और फंसे हुए हैं। उनकी सुरक्षित घर-वापसी सबसे प्राथमिक और नीतिगत मुद्दा है। आतंकवाद के नए खतरे आसन्न हैं। यदि ऐसे संक्रमण-काल के दौरान तालिबान के वरिष्ठ नुमाइंदे ने भारतीय राजदूत के साथ संवाद कर एक सिलसिला शुरू करने की पहल की है और भारत को कुछ आश्वासन दिए हैं, तो भारत सरकार ने तालिबान के सामने नाक नहीं रगड़ी है। घुटने टेकने वाला यकीन नहीं जताया है। तालिबान की हुकूमत को मान्यता देने की स्वीकृति नहीं दी है, बल्कि भारत की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दो प्रस्ताव पारित किए गए हैं। प्रस्ताव फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका ने पेश किए थे। भारत समेत 13 सदस्यों ने स्वीकार किए हैं। बेशक तालिबान को स्पष्ट तौर पर ‘आतंकवादी’ करार नहीं दिया गया, लेकिन यह दो टूक जरूर कहा गया है कि तालिबान अफगान सरजमीं का इस्तेमाल किसी देश को धमकाने या हमला करने अथवा आतंकियों को पनाह देने में नहीं करने देंगे। रूस और चीन सरीखे वीटो पॉवर वाले स्थायी सदस्य देशों के बहिष्कार के बावजूद ये प्रस्ताव पारित किए गए हैं।
लगभग यही अपेक्षा भारतीय राजदूत ने की थी, जिस पर तालिबान नेता ने आश्वस्त किया है। बेशक भरोसा करने में वक्त लगेगा। दुनिया के ज्यादातर देश तालिबान हुकूमत का आकलन करना चाहते हैं। मान्यता तो रूस और चीन ने भी नहीं दी है। फिर भारत में चिल्ला-पौं क्यों मची है? हम ओवैसी सरीखे कट्टरवादी नेताओं के कथनों की व्याख्या करना ही नहीं चाहते, लेकिन कांग्रेस जैसी पार्टी को तो बोलने से पहले तोलना जरूर चाहिए। उसने करीब 55 साल तक देश पर शासन चलाया है। विदेश नीति की बुनियाद उसी ने खोदी और भरी है। तालिबान से संवाद पर उसे क्या आपत्ति है? अफगानिस्तान पर किससे बात करे भारत? सुरक्षा परिषद में जो प्रस्ताव पारित किए गए हैं, उनमें भारत सरकार की विदेश नीति को अच्छी तरह पढ़ा जा सकता है। भारत सरकार ने भी प्रत्यक्ष रूप से तालिबान को ‘आतंकी’ नहीं कहा है। उसके भीतर की कूटनीति को समझने की जरूरत है। अफगानिस्तान में हम अपना दखल छोड़़ नहीं सकते और उस देश को चीन तथा पाकिस्तान के ही हाथों में नहीं सौंप सकते, लिहाजा इस मसले पर सियासत बिल्कुल नहीं की जानी चाहिए। तालिबान से वार्ता के जरिए भारत ने उसे अपनी चिंताओं से अवगत कराया है। अफगानिस्तान की जमीन का भारत विरोधी गतिविधियों के लिए प्रयोग नहीं होने दिया जाएगा, तालिबान ऐसा आश्वासन देता नजर आ रहा है। वार्ता के जरिए ही यह बात संभव हो पाई है। कई अन्य देश भी तालिबान से वार्ता कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में भारत का वार्ता करना नाजायज नहीं कहा जा सकता। हमें वार्ता से अच्छे परिणामों की उम्मीद करनी चाहिए।
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