तालिबानों पर जब अफगानी नागरिकों को भरोसा नहीं तो दुनिया भरोसा कैसे करे?
-तनवीर जाफरी-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
इस्लामी शरीया कानून वैसे तो सऊदी अरब सहित दुनिया के और भी अनेक देशों में लागू है। ऐसे लगभग सभी देशों से भारत व दुनिया के अन्य देशों के बेहतर रिश्ते यहाँ तक कि उनसे व्यवसायिक रिश्ते भी हैं। उन देशों के धर्म व शरीया कानूनों की स्वीकार्यता के चलते दुनिया ऐसे किसी देश पर न तो कोई आपत्ति जताती है न ही उनके आपसी संबंधों पर कोई फर्क पड़ता है। परन्तु तालिबान,उनकी तर्ज-ए-सियासत,उनके द्वारा इस्लामी शरीया कानूनों का हिमायती बनने का ढोंग,और शरीया के ही नाम पर दर्शाई जा रही क्रूरता,इस्लाम के नाम पर दुनिया के मुस्लिम देशों से समर्थन जुटाए जाने के लिये अपनाया जाने वाला दोहरापन,अफगानिस्तान में ही महिलाओं सहित एक बड़े शांतिप्रिय व प्रगतिशील वर्ग द्वारा किया जा रहा उनका विरोध और यहाँ तक कि स्वयं कट्टरपंथी तालिबानी सर्वोच्च नेताओं के मध्य सत्ता की खींच तान को लेकर काबुल के राष्ट्रपति भवन में कथित तौर पर हुई मार-पीट तथा उनसे सहमति न रखने वालों,महिलाओं व पत्रकारों पर ढहाये जाने वाले जुल्म इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि उपद्रवी,अतिवादी,पूर्वाग्रही तथा कट्टरपंथी सोच रखने वाले यह लोग कम से कम अफगानिस्तान पर शासन करने योग्य तो हरगिज नहीं हैं।
तालिबानों द्वारा विगत 15 अगस्त को दहशत फैलाकर व हथियारों के बल पर काबुल के सत्ता केंद्र पर कब्जा जमाया गया और उनकी दहशत के चलते ही किसी बड़ी अनहोनी को टालने की गरज से राष्ट्रपति अशरफ गनी को आनन फानन में देश छोड़कर भागना भी पड़ा। राष्ट्रपति गनी के अनुसार यदि वे देश छोड़कर न भागते तो खूनी हिंसा हो सकती थी इसी को टालने के लिये वे काबुल छोड़ कर भाग निकले। जाहिर है जिस संभावित खूनी हिंसा का वे जिक्र कर रहे थे उसकी पूरी संभावना तालिबानी लड़ाकों की तरफ से ही थी। कोई भी सभ्य समाज इसे न तो सत्ता परिवर्तन मान सकता है न ही इसे जनभागीदारी की सरकार कहा जा सकता है। खासकर तब जबकि दुनिया के ‘मोस्ट वांटेड’ आतंकी सत्ता पर काबिज हों। हालांकि तालिबानियों द्वारा इसे आजादी के तौर पर पेश किया जा रहा है। जबकि इसमें आजादी जैसा कोई मसअला था ही नहीं। फरवरी 2020 में अफगानिस्तान में हुए चुनावों में राष्ट्रपति अशरफ गनी लगभग 51 प्रतिशत मत प्राप्त कर अफगानी जनता द्वारा दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए थे। यानी वहां अफगानी जनता द्वारा निर्वाचित सरकार ही कार्यरत थी और उसी की देखरेख में अफगानिस्तान में अनेक विकास परियोजनायें चल रही थीं। रहा सवाल अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी का तो इसमें भी तालिबानों की सशस्त्र मुहिम की कोई भूमिका नहीं थी। क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने सत्ता में आते ही स्वयं 31 अगस्त 2021 तक सभी अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ देने की समय सीमा निर्धारित कर दी थी। लिहाजा तालिबानों द्वारा ‘आजादी ‘ हासिल करने जैसा प्रोपेगंडा करना दुनिया की आँखों में धूल झोंकने जैसा ही है। तालिबानी नेता यह भी भली भांति जानते हैं कि यदि वे चुनाव के रास्ते से अफगानिस्तान की सत्ता हासिल करना चाहें तो यह उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगी। क्योंकि वहां की शांतिप्रिय आम जनता खासकर उदारवादी वर्ग व महिलायें तालिबानियों के वहशीपन तथा धर्म के नाम पर अपनाई जाने वाली अधर्मिता,उनके क्रूर बर्ताव तथा संकीर्ण मानसिकता से बखूबी वाकिफ है। अफगानिस्तान से आने वाली तस्वीरों में जिस तरह मंहगे से मंहगे व अति आधुनिक हथियारों से लैस तालिबानी लड़ाके राष्ट्रपति भवन से लेकर वहां की सड़कों तक जिस अंदाज में घूमते दिखाई देते हैं उसे देखकर तो यह समझना ही मुश्किल है कि कौन तालिबानी लड़ाका है तो कौन सुरक्षा कर्मी। जाहिर है इसतरह की तस्वीर किसी अराजक व असभ्य देश की ही हो सकती है। एक मशहूर कहावत है ‘लुच्चे सबसे ऊँचे ‘,इसी कहावत के तहत आज हाथों में हथियार धारण कर तथा शरीया कानून लागू करने का भय फैलाकर तालिबानों ने दुनिया को यह दिखने का प्रयास किया है कि वे ही देश की आवाज हैं और पूरा देश उनके साथ है। परन्तु दरअसल अफगानिस्तान में दिखाई देने वाला तालिबानी वर्चस्व महज एक धोखा और छलावा के सिवा और कुछ भी नहीं। सही मायने में अफगानिस्तान में दिखाई दे रहे घटनाक्रम का न तो इस्लाम से कोई वास्ता है न ही इसमें दुनिया के मुसलमानों के हितों जैसी कोई बात है। यह शुद्ध रूप से सत्ता व साम्राजयवाद का खेल है जो चंद कट्टरपंथियों द्वारा अफगानिस्तान के जाहिल व बेरोजगार लोगों को ‘धर्म की अफीम’ खिलाकर धर्म और शरीया के नाम पर खेला जा रहा है। इस्लाम की उत्पत्ति के समय से ही ऐसी शक्तियां सक्रिय हो चुकी थीं जो धर्म और सत्ता का घालमेल कर आम लोगों को धोखे में रखकर मुफ्त में स्वयं सत्ता का भरपूर आनंद लेती रही हैं। इसी सोच के तमाम आक्रांता भी थे जिनके मुंह पर तो इस्लाम और मुसलमान होता था मगर उनके कृत्य गैर इस्लामी तो क्या बल्कि गैर इंसानी हुआ करते थे। जिस तरह दुनिया में उन अनेक लुटेरे आक्रांताओं ने इस्लाम का नाम बदनाम किया है ठीक उसी तरह यह तालिबानी भी अपनी क्रूरता का परिचय देकर पूरी दुनिया में इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम व रुस्वा कर रहे हैं। दुनिया के मुसलमानों से कथित तालिबानी प्रेम इनकी चीन नीति से भी स्पष्ट है जिसके अंतर्गत चीन के वीगर मुसलमानों के साथ बड़े पैमाने पर होने वाली ज्यादतियों के बावजूद इन्होंने उस मसअले पर खामोश रहने का निर्णय लिया है। पाकिस्तान द्वारा तालिबानों को कथित तौर पर दिया जाने वाला नैतिक व सामरिक समर्थन भी ‘हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे ‘ नीति पर आधारित लगता है। पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक बच्चे बच्चे को यह पता चल चुका है कि तालिबानों की वापसी में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। जबकि इससे पहले अफगानिस्तान के विकास में तथा उसे पुनः खड़ा करने में भारत जो भूमिका अदा कर रहा था उसे पाकिस्तान पचा नहीं पा रहा था। कुल मिलाकर अफगानिस्तान की मौजूदा ऐसी राजनैतिक स्थिति में जबकि सत्ता क्रूर व अपराधी मानसिकता के लोगों के हाथों में हो और स्वयं अफगानी नागरिकों को ही तालिबानों पर भरोसा न हो तो दुनिया आखिर इनपर कैसे भरोसा करे ?
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