विरसामुंडा भारतीय स्वातंत्र्य चेतना के सच्चे प्रतीक
-महामना जगदीश गुप्त-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
जनजातीय समाज के सम्मान की पुनर्स्थापना के लिए तथा उनके द्वारा देश के स्वतंत्रता संग्राम में दिए गए बलिदान और योगदान को उचित मान्यता देने के लिए मोदी जी की प्रतिबद्धता अटूट है।
प्रतीक के रूप में बिरसामुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस घोषित करने की घोषणा मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा की राष्ट्रवादी आस्था का उद्घोष है।
यह अचानक नहीं हुआ है। केन्द्र सरकार का जनजातीय कार्य मंत्रालय ‘जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालय’ स्थापित कर रहा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले जनजातीय लोगों को समर्पित ‘जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालय’ विकसित करते आ रहा है। ऐसा 15 अगस्त 2016 को प्रधानमंत्री द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालय स्थापित करने की घोषणा के अनुपालन में किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में कहा था कि सरकार की उन राज्यों में स्थायी संग्रहालय स्थापित करने की इच्छा है यहां जनजातीय लोग रहते थे और जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया और उनके सामने झुकने से मना कर दिया था। सरकार विभिन्न राज्यों में इस तरह के संग्रहालयों के निर्माण का काम करेगी ताकि आने वाली पीढि़यों को यह पता चल सके कि बलिदान देने में हमारे आदिवासी कितने आगे थे।
जनजातीय सम्मान के गौरव स्थापना की यह पहल भारत की स्वतंत्रता की जिजीविषा की कहानी के स्वर्णिम पृष्ठों को पुनः जगमग कर देगा। अभी कुछ पृष्ठ और खुलेंगे, जिससे हम जान सकेंगे कि स्वतंत्रता आंदोलन केवल 1857 के सशस्त्र विद्रोह के आरंभ होने से बहुत पहले से चला आ रहा है और यह मात्र राज्य बचाने के लिए राजाओं का कार्यक्रम नहीं था यह तो जन अभिव्यक्ति थी जिसे अपनी संस्कृति धर्म और सभ्यता से कोई छेड़छाड़ कभी पसंद नहीं आई। अभी तो हम मात्र यह जान सके हैँ कि स्वतंत्रता की यह जिजीविषा किन्ही वैरिस्टरो या लायरों के आंदोलन से पैदा नहीं हुई थी। उल्टे उन्होंने इसे षड़यंत्रपूर्वक अंग्रेजों की मदद से हथियाया था। नंगे पांव और नंगे बदन रहने वाले भारतीय वनवासी व ग्रामवासी जिसे आज की भाषा में जनजाति कहा जाता है जो उस समय हम सबके पूर्वज ही थे। वेषभूषा व रहन सहन में परम्पराओं के रक्षकों को हमने पिछड़ा घोषित कर भले ही उन्हें जनजाति कह दिया। जबकि परम्पराओं और अपनी मान्यताओं को दूषित करके पाश्चात्य शैली के मानसिक गुलाम होकर-उनका गढ़ा हुआ कपटी इतिहास पढ़ कर स्वयं को हीन मानने वाला यह कथित सभ्य समाज है। अब इस हीनबोध से ग्रसित समाज अब अपने अतीत के स्वर्णिम गौरव से परिचित होने के साथ गौरव का अनुभव कर सकेगा।
भारत में स्वतंत्रता सेनानियों ने असमानता के विरोध में कई संघर्ष किए हैं। इनमें से कुछ ही उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर हैं। ये संघर्ष उस समय अपरिहार्य हो गए थे जब साम्राज्यवादी ताकतें अत्याचारी ताकत के बल पर विभिन्न इलाकों पर कब्जा करने के लिए बाहर निकल पड़ी थी। इन शक्तियों ने स्वतंत्र लोगों की स्वतंत्रता और संप्रभुता को नष्ट करके असंख्य पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के जीवन का सर्वनाश करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। यह विस्तारवाद और आत्म प्रस्तुति की शक्तिशाली भावना के बीच एक युद्ध ही था। जनजातीय लोगों ने ब्रिटिश प्राधिकारियों और अन्य शोषकों का भरपूर विरोध किया। इन दुष्ट शक्तियों ने जनजातीय लोगों को वनों में अलग-थलग कर दिया था और उधर-उधर बिखेर दिया था, लेकिन प्रत्येक जनजाति ने अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक विविधता को बचाए रखा।
उन्होंने अपने-अपने संबंधित क्षेत्रों में ब्रिटिश प्राधिकारियों के विरूद्ध आंदोलन चलाए। बाहरी लोगों के खिलाफ उनके आंदोलनों को उपनिवेशवाद का विरोधी कहा जा सकता है। अपनी भूमि पर अतिक्रमण, जमीन की बेदखली, पारंपरिक कानूनी और सामाजिक अधिकार और रीति-रिवाजों का उन्मूलन, भूमि के हस्तांतरण के लिए करों/ किरायों में बढ़ोतरी, सामंती और अर्द्ध सामंती मालिकाना हक की समाप्ति के खिलाफ उन्होंने संधर्ष का बिगुल फूंका। कुल मिलाकर यह आंदोलन सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन थे। लेकिन इन्हें इनके अस्तित्व से संबंधित मुद्दों के विरूद्ध काम करने के लिए कहा गया। जनजातीय प्रतिरोध आंदोलन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक अभिन्न अंग था। इस ऐतिहासिक आंदोलन में बिरसामुंडा, रानी गैदिन्लयू, लक्ष्मणनायक और वीर सुरेंद्रसाई जैसे प्रतिष्ठित आदिवासी नेताओं तथा अन्य लोगों ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई।
जनजातीय प्रतिरोध आंदोलन की सबसे बड़ी और प्रमुख विशेषता यह थी कि यह विदेशी शासकों को अपने विरूद्ध अनिवार्य रूप से एक विद्रोह लगता था । और इस दष्टि से इससे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के अग्रदूत का निर्माण किया जा सकता था। यह चर्चा अनावश्यक है कि उनके प्रतिरोध आंदोलन के पीछे क्या मजबूरियां या प्रेरणाएं थीं। यह भी सारहीन है कि इन जनजातीय क्रांतिकारियों के पास सशस्त्र विद्रोह करने के लिए कोई औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण भी नहीं था और उनके पास कार्रवाई करने के लिए मार्गदर्शन और उन्हें प्रेरित करने के लिए कोई महत्वपूर्ण नेतृत्व भी नहीं था लेकिन इस तथ्य में कोई चूक नहीं है कि उन्होंने विदेशी शासकों को अपने निवास स्थान, सदियों पुराने रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक, रस्मों में कोई हस्तक्षेप करने के विरूद्ध दब्बूपन दिखाकर समर्पण नहीं किया। उन्होंने स्थानीय राजकीय शक्तियों के धुरंधरों के रूप में काम किया और उनके सभी कार्य और आचरण विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए निर्देशित थे।
भारत में समर्पित संगठनकर्ताओं की एक गौरवशाली परम्परा है। जो कभी सन्यासी कहलाए कभी आचार्य प् संघ तो 1925 से आया, किंतु यह परम्परा सनातनधर्म के साथ साथ निरंतर चली आ रही थी। आज संघ को ईसाई और इस्लाम के प्रसार के कार्यों में वे भले इसे बाधा बताते हैं, किंतु कोई इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है कि वनवासियों में भगवान की तरह पूजे जाने वाले बिरसा मुंडा मिशनरी स्कूल में पढ़ने के बाद भी, अपने पूरे परिवार के ईसाई पंथ में मतान्तरित होने के बाद भी अपने पारम्परिक तौर तरीकों की ओर क्यों लौट आए? 1894 में अपनी भूमि और वन सम्पत्ति पर अपने समाज के अधिकारों की मांग को लेकर वे उग्र आंदोलन किए।
उन्होंने अनुभव किया कि ईसाई मत से अपनी परम्पराओँ में लौटने के उपरांत भी बहुत सा प्रदूषण आचार विचार खान पान में आ गया है। तब उसके शुद्धिकरण के निमित्त एक अभियान चलाया जिसे विरसाईत कहते हैं। व्याख्याकारों ने विरसाईत को अलग धर्म कहकर सनातनधर्म से काटने का प्रयास किया, किंतु यह एक सनातन भारतीय आश्रम पद्धति है। यह शुचिता आंदोलन इतना लोकप्रिय हुआ कि जिस तरह गुरूओं को शिष्य भगवान मानने लगते है । वही विरसा के शिष्यों और श्रद्धालुओं ने किया प् विरसाईत धर्म का पालन करना बहुत कठिन रहा। उन्होंने मांस मदिरा खैनी बीड़ी किसी प्रकार के नशे को किसी भी कीमत पर हाथ नहीं लगाने से रोका । इतना ही नहीं उन्होंने बाजार का बना खाने से भी बचाया और यह कारण विशुद्ध रूप से आर्थिक था। यहां तक विरसाईत दूसरे के घर का भी नहीं खाते। गुरुवार के दिन फूल पत्ती दातुन भी नहीं तोड़ते। यहां तक कि खेती में हल भी नहीं चलाते। कपड़ों में केवल उजले रंग का सूती कपड़ा इस्तेमाल करते हैं। केवल प्रकृति की पूजा करते हैं। गीत गाते हैं जनेऊ पहनते हैं। पुरुष या स्त्रियां बाल नहीं कटवाते। कोई बाहर का आदमी इनके घर आता है तो यह खाना बनाकर नहीं खिलाते हैं अपितु उनके लिए राशन जलावन और खाना बनाने की जगह का इंतजाम कर देते हैं। किसी दूसरी जाति की लड़की अगर इनके यहां विवाह करती है तो उसे विरसाईत का पालन करना ही होता है। लेकिन बिससाईत का कोई लड़का अगर दूसरी जाति या धर्म में शादी करता है तो उसे सामाजिक मान्यता मिलना बहुत मुश्किल होता हैप् यह एक बड़ी वजह है जिससे विरसाईत को मानने वालों की संख्या बहुत कम है।
सन् 1901 में विरसा मुंडा का निधन हो गया था किंतु उनके द्वारा चलाए आंदोलन का प्रभाव आज तक देश भर के तमाम वनवासियों पर है। अब बरसाइत पंथ में तीन धाराएं हो गई हैं। एक जो रविवार को पूजा करते हैं। एक बुधवार को और एक गुरुवार को। विरसाइत पंथ मानने वाले भूत प्रेत झाड़-फूंक ओझा आदि को बिल्कुल नहीं मानते। यह सभी साल में दो बार मिलते हैं 30 जनवरी से 2 फरवरी तक और 15 से 18 मई तक। सिमडेगा जिले में इनका सम्मेलन होता है। विरसागतों का मुख्य कार्य खेती है। परंपरागत तरीके से यानी हल बैल लेकर ही खेत जोतते हैं। इसके अलावा जंगल से ही वह अपना भरण-पोषण करते हैं।
बिरसाइत मानने वाले अपरिग्रह का पालन करते हैं। वीरसाइतों के घरों में कम से कम, मात्र जरूरत के सामान मिलेंगे।जितने में भरण पोषण कर लें, जमीन भी उतनी ही रखते हैं।किंतु आजकल विरसाईत अपने बच्चों को हिंदी अंग्रेजी के अलावा मुंडारी भी पढ़ा रहे हैं । नई पीढ़ी के बच्चे सरकारी नौकरी भी करना चाहते हैं ।कुछ को नौकरी मिली भी है, क्योंकि यह किसी को अपनी परंपरा में आने के लिए नहीं कहते इसलिए जो भी आए हैं अपनी इच्छा से आए हैं।
यही कारण है कि इनकी संख्या बहुत कम है। यह सारा विवरण देखकर क्या हम नहीं समझ सकते कि बिरसा सनातनी मान्यता और परंपराओं के कितने प्रबल आग्रही रहे थे। और यह आग्रह भारत की आत्मा का आग्रह है जिसे कोई भी परकीय प्रतिबंध या प्रभाव स्वीकार नहीं हैं। भारत की मूल स्वभाव इन्हीं जनजातीयों में बसता है। अतः भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के बहाने हम अपनी स्वातांत्र्य चेतना का दर्शन करें। और अपनी औपानेवेशिक मानसिकता और व्यवहार को त्याग कर सनातन श्रेष्ठ भारतीय व्यवहार को अपनाएं। यही हमारी समृद्धि और सुख का आधार बनेगा।
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