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लेख - May 31, 2022

रुपए में गिरावट का मतलब

-डा. अश्विनी महाजन-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

लंबे समय से स्थिर रुपए में पिछले दिनों अचानक गिरावट आने लगी है, जिसके कारण देश में चिंता व्याप्त हो रही है। गौरतलब है कि रुपए और डॉलर का विनिमय दर 6 दिसंबर 2021 को 75.30 रुपए प्रति डॉलर थी, जो 25 अप्रैल 2022 को 76.74 रुपए और 24 मई 2022 को 77.6 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गई थी। देखना होगा कि कोरोना की शुरुआत (अप्रैल 2020) में यह विनिमय दर 76.50 रुपए प्रति डॉलर थी जो बेहतर होती हुई जनवरी 11, 2022 तक आते-आते 74.00 रुपए प्रति डॉलर के आसपास तक पहुंच गई। लेकिन हाल ही में रुपए में आई गिरावट ने वो लाभ समाप्त कर दिया है। लेकिन अभी भी डॉलर अप्रैल 2020 के स्तर के लगभग 1.4 प्रतिशत ही ऊपर है।

महंगाई का खतरा

पिछले कुछ समय से दुनिया भर में महंगाई बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि अप्रैल माह में अमरीका, इंगलैंड और यूरोपीय संघ में महंगाई की दर क्रमशः 8.3 प्रतिशत, 7.0 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत रही। इसी क्रम में भारत में भी अप्रैल माह में खुदरा महंगाई की दर 7.79 प्रतिशत रिकार्ड की गई, जो पिछले 4-5 वर्षों की तुलना में काफी अधिक मानी जा रही है। रुपए में आ रही गिरावट देश में महंगाई की समस्या को और अधिक बढ़ा सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्रा की एक रपट के अनुसार रुपए में एक प्रतिशत की गिरावट हमारी महंगाई को 0.15 प्रतिशत बढ़ा सकती है, जिसका असर अगले 5 माह में दिख सकता है। समझा जा सकता है कि भारत बड़ी मात्रा में पैट्रोलियम उत्पादों का आयात करता है, और पिछले काफी समय से कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें काफी बढ़ चुकी हैं। ऐसे में रुपए की गिरावट, भारतीय उपभोक्ताओं के लिए पैट्रोलियम कीमतों को और अधिक बढ़ा सकती है, जिसके कारण कच्चे माल, औद्योगिक ईंधन, परिवहन लागत आदि भी बढ़ सकती है। रिजर्व बैंक इस बात को समझता है कि रुपए की कीमत में गिरावट भारी महंगाई का सबब बन सकती है।

ग्रोथ पर भी लग सकता है ब्रेक

इतिहास साक्षी है कि तेज महंगाई ग्रोथ पर भी प्रतिकूल असर डालती है। ऐसा इसलिए है कि एक ओर महंगाई को थामने और दूसरी ओर वास्तविक ब्याज दर को भी धनात्मक रखने के लिए रिजर्व बैंक को रेपो रेट को बढ़ाना पड़ता है। ब्याज दरों में वृद्धि ग्रोथ की राह को और मुश्किल बना देती है, क्योंकि उससे उपभोक्ता मांग, व्यावसायिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश सभी पर प्रतिकूल असर डालता है। इसीलिए रिजर्व बैंक को सरकार द्वारा निर्देश है कि वे मुद्रास्फीति को 4 प्रतिशत (जमा-घटा 2 प्रतिशत) के स्तर तक सीमित रखे। यानी मुद्रास्फीति की दर को किसी भी हालत में 6 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ने देना है।

रुपए को थामने में रिजर्व बैंक की भूमिका

पिछले लंबे समय से भारत में रुपए की अन्य करैंसियों के साथ विनिमय दर, बाजार द्वारा निर्धारित होती रही है। सैद्धांतिक तौर पर सोचा जाए तो डॉलर और अन्य महत्त्वपूर्ण करैंसियों की मांग और आपूर्ति के आधार पर रुपए की विनिमय दर तय होती है। पिछले कुछ समय से हमारे आयात अभूतपूर्व तौर पर बढ़े हैं। हालांकि इस बीच हमारे निर्यात भी रिकार्ड स्तर तक पहुंच चुके हैं, लेकिन आयातों में तेजी से वृद्धि होने के कारण हमारा व्यापार घाटा काफी बढ़ चुका है। अपने देश में पोर्टफोलियो निवेश भी बड़ी मात्रा में आता रहा है। लेकिन पिछले काफी समय से पोर्टफोलियो निवेशक देश से भारी मात्रा में निवेश वापस ले गए हैं। इसका असर हमारे शेयर बाजारों पर तो पड़ा है, डॉलरों की आपूर्ति भी उससे प्रभावित हुई है। जब भी रुपए में गिरावट शुरू होती है तो सट्टेबाज इत्यादि भी पैसा बनाने की तरकीबें शुरू कर देते हैं और अपनी गतिविधियों से बाजार में डॉलर की कृत्रिम कमी कर देते हैं। रिजर्व बैंक भारत के विदेशी मुद्रा भंडारों का संरक्षक तो है ही, साथ ही साथ उसके पास करैंसी की विनिमय दर को स्थिर रखने का भी दायित्व होता है। ऐसे में जब बाजार में सट्टेबाज और बाजारी शक्तियां रुपए को कमजोर करने की कोशिश करती हैं तो रिजर्व बैंक महंगाई को थामने, मौद्रिक स्थिरता और ग्रोथ के लिए आवश्यक वातावरण बनाने के अपने दायित्व के मद्देनजर विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करता है और आवश्यकता पड़ने पर अपने विदेशी मुद्रा भंडारों से डॉलर बेचते हुए डॉलरों की आपूर्ति बढ़ा देता है और बाजार में सट्टेबाजों द्वारा उत्पन्न डॉलरों की कृत्रिम कमी का समाधान कर देता है।

रुपए का क्या है भविष्य?

रुपए के मूल्य के बारे में सदैव दो प्रकार की राय सामने आती है। एक प्रकार के विशेषज्ञों का मानना है कि रुपए मं अवमूल्यन अवश्यंभावी है और इसलिए रिजर्व बैंक को रुपए के मूल्य को थामने हेतु अपनी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा को दाव पर लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे विदेशी मुद्रा भंडार घट जाएंगे और रुपए में सुधार भी नहीं होगा। इसलिए रुपए को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए। ऐसे विशेषज्ञों का तर्क यह है कि भारत में आयातों के बढ़ने की दर निर्यातों के बढ़ने की दर से हमेशा ज्यादा रहती है, इसलिए डॉलरों की अतिरिक्त मांग डॉलर की कीमत को लगातार बढ़ाएगी। उनका यह तर्क है कि जब-जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी, तब-तब रुपए में गिरावट अवश्यक होगी। दूसरे प्रकार के विशेषज्ञों का यह मानना है कि डॉलरों की अतिरिक्त मांग यदाकदा उत्पन्न होती है और फिर से परिस्थिति सामान्य हो जाती है। ऐसे में बाजारी शक्तियां रुपए में दीर्घकालीन गिरावट न लाने पाएं, इसलिए रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप महत्त्वपूर्ण है। पूर्व में भी रिजर्व बैंक द्वारा अपने भंडार में से डॉलरों की बिक्री से रुपए को थामने में मदद मिली है। स्थिति सामान्य होने पर रिजर्व बैंक पुनः डॉलरों की खरीद कर अपने विदेशी मुद्रा भंडारों की भरपाई कर लेता है। इसलिए रुपए के स्थिरीकरण के प्रयास से विदेशी मुद्रा भंडारों का दीर्घकाल में कोई नुकसान नहीं होता।

प्रश्न यह है कि क्या शनैः-शनैः रुपए का अवमूल्यन अवश्यंभावी है अथवा रुपए को मजबूत करने की रणनीति बनाना असंभव है। पिछले काफी समय से सरकारों द्वारा मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई और यह प्रयास हुआ कि कम से कम आयात शुल्कों पर आयात को अनुमति दी जाए। चीन समेत कई देशों द्वारा देश में आयातों की डंपिंग के चलते हमारे उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और आयातों पर हमारी निर्भरता बढ़ती गई। इसके साथ-साथ हमारा व्यापार घाटा भी अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गया। व्यापार घाटे की वृद्धि का सीधा असर डॉलरों की मांग पर पड़ा और रुपए का अवमूल्यन होता गया। लेकिन पिछले लगभग दो वर्षों से सरकार के ऐसे कई प्रयास देखने को मिल रहे हैं, जिससे आयातों पर हमारी निर्भरता आने वाले समय में कम हो सकती है। आत्मनिर्भर भारत योजना के परिणाम अब सामने आ रहे हैं और दवा उद्योगों के लिए कच्चा माल, सेमीकंडक्टर, इलैक्ट्रिक वाहन, टेलीकॉम उत्पादों सहित कई प्रकार के उत्पाद अब भारत में बनने लगे हैं। आयातों में होने वाली कमी से डॉलर की मांग घट सकती है। उधर भारत द्वारा रूस से कच्चा तेल खरीदने और उसका भुगतान रुपयों में करने के कारण डॉलरों की मांग में और कमी हो सकती है और इसका परिणाम रुपए की बेहतरी के रूप में देखा जा सकेगा।
(लेखक कालेज एसोशिएट प्रोफेसर है)

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