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लेख - July 1, 2022

महाराष्ट्र : सियासी बिसात पर बिछेंगे नए नेरेटिव

-वर्षा भंभाणी मिर्जा-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चल रही शिवसेना अलग थी। शिव सैनिकों की बनिस्बत अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का प्रवेश बढ़ा था। इस दौर में नई शिवसेना बनाम पुरानी शिवसेना का संघर्ष भी नुमाया हुआ। मुख्यमंत्री निवास ‘वर्षा’ में शिवसैनिक इंतजार करते लेकिन मुख्यमंत्री उन्हें नहीं मिल पाते थे। सरकार उम्दा तरीके से चल रही थी लेकिन जमीन पर शिवसौनिक बेचैन थे। बागी यह भांप चले थे और भाजपा उन्हें लपकने को तैयार थी।

सियासत अगर शतरंज का खेल है तो महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की हर चाल बिलकुल सही पड़ रही है; और अगर यह ताश का खेल है तब भी किस्मत से सभी इक्के भाजपा के ही पत्तों में आ गए हैं। ऊपर से चाल भी उसकी ही है। यह बताने की जरूरत ही नहीं है कि सारे इक्के संयोग से आए हैं या बांटने वाले ने हाथ की सफ़ाई दिखाते हुए खुद के पास रख लिये हैं। बहरहाल, ठीक एक सप्ताह पहले इस स्तंभ में लिखा था कि बंदों को गिना जा रहा है और जिस दिन गिनती पूरी हो जाएगी, ताकत लगाने वाली वह कथित ‘महाशक्ति’ अपने आप प्रकट हो जाएगी। ठीक वही हुआ। हवाई जहाजों में उड़ाने और पांच सितारा होटलों में ठहराने के बाद देवेंद्र फडणवीस के जरिये भारतीय जनता पार्टी नकाब खोलकर सामने आ गई है। वही फडणवीस जो पहले प्रयास में अपने गणित में नाकाम रहे थे इस बार ज्यादा व बेहतर तैयारी से आए थे।

31 महीने पहले की एक सुबह-सुबह सरकार बनाने के बावजूद वे सत्ता से वंचित रह गए थे। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाविकास अघाड़ी ने सरकार बना ली और चलाई। सरकार कैसी चली उसका जवाब देने का काम जनता करती उससे पहले बागियों ने अपना रंग दिखा दिया। पद छोड़ने से पहले मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने जो कहा वह गौर करने लायक है- ‘सब कुछ ठीक चल रहा था,अच्छी सरकार को किसी की नजर लग गई।’ उन्होंने कहा कि जिस शिवसेना ने रिक्शावाले को, पान की दुकान चलाने वाले को कॉरपोरेटर, विधायक और मंत्री बनाया, उन्होंने धोखा दिया। हम बागियों को अपना मान बैठे थे।

कोरोना टेस्ट में हम पास हुए फ्लोर टेस्ट में टाइम वेस्ट नहीं करना है। जाहिर है कि उद्धव सरकार अल्पमत में आ गई थी लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने घटक दलों के नेता सोनिया गांधी और शरद पवार का धन्यवाद किया वह उनकी गरिमामय विदाई को बताता है। कोरोना के इंतज़ामात की तारीफ मुंबई से अक्सर सुनाई दे जाती थी। सांप्रदायिक बहसों से आग लगाने वाले टीवी चैनल भी धारावी के चुनौती भरे बेहतरीन कोरोना प्रबंधन के गुण गा चुके हैं। मुंबई अंतरराष्ट्रीय महानगर है और यहां महामारी का प्रबंधन मायने रखता है लेकिन बागियों का मकसद कुछ और ही था। भाजपा ताक में थी। इस बार फडणवीस ज्यादा शक्ति बटोरकर आए। मसला हिन्दुत्व का बनाया गया लेकिन असली इरादा सत्ता हथियाने का था। वह भी ईडी, आईटी और सीबीआई की ताकत के साथ। उद्धव के मंत्री पुत्र आदित्य ठाकरे की बात भी जिक्र करने लायक है कि ‘हम शरीफ क्या हुए सारी दुनिया बदमाश हो गई।’

बालासाहेब ठाकरे के पोते आदित्य ठाकरे शायद जन्मे भी नहीं होंगे जब शिवसेना का पर्याय ही आक्रामक तेवर हुआ करता था। नमाज के जवाब में महाआरती, पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के विरोध में शिवसैनिकों का पिच खोद डालना जैसे आक्रामक तेवरों वाली शिवसेना के एक इशारे पर मुंबई थम जाती थी। कहा जाता है कि आए दिन की हड़तालों से इंदिरा गांधी त्रस्त थीं जबकि बालासाहेब को उनका कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष समर्थन होता था। बालासाहेब शरद पवार के भी निकट थे।

मराठियों का हास्यबोध कमाल का होता है। बालासाहेब ठाकरे भाजपा को ‘कमलाबाई’ या ‘कमली’ कहते थे। उनके सामने भाजपा की महाराष्ट्र में कोई हैसियत नहीं थी। अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा को महाराष्ट्र में पैर जमाने थे। शरद पवार बेटी सुप्रिया को राजनीति में उतार रहे थे। जब बालासाहेब को पता चला तो उन्होंने शरद पवार से कहा कि ‘बेटी को चुनाव में उतार रहे हो बताया तक नहीं।’ पवार बोले-‘क्या बताता? शिवसेना-भाजपा दोनों ने उसके खिलाफ प्रत्याशी उतार दिए हैं।’ ठाकरे- ‘अरे बताना चाहिए न! कमलाबाई को मैं बोल दूंगा।’ इसके बाद उन्होंने शिवसेना का उम्मीदवार भी हटा लिया।

बेशक उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चल रही शिवसेना अलग थी। शिव सैनिकों की बनिस्बत अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का प्रवेश बढ़ा था। इस दौर में नई शिवसेना बनाम पुरानी शिवसेना का संघर्ष भी नुमाया हुआ। मुख्यमंत्री निवास ‘वर्षा’ में शिवसैनिक इंतजार करते लेकिन मुख्यमंत्री उन्हें नहीं मिल पाते थे। सरकार उम्दा तरीके से चल रही थी लेकिन जमीन पर शिवसौनिक बेचैन थे। बागी यह भांप चले थे और भाजपा उन्हें लपकने को तैयार थी। एकनाथ शिंदे इस बागी गुट के अगुआ बने। शिंदे की एक कहानी इन दिनों खूब सुनाई जा रही है। मामला मुंबई का नहीं दिल्ली का है। बालासाहेब ठाकरे के सांसद दिल्ली में थे। आशंका थी कि कहीं गायब ना हो जाएं। बालासाहेब ने मुंबई से शिवसैनिक भेजे। दो से तीन की संख्या में इन्होंने शिवसेना के सांसदों के घर घेर लिये। अब कोई कहां भाग सकता था। दो दिन में काम हो गया और शिवसैनिक लौट आए। उन्हीं में से एक एकनाथ शिंदे भी थे। आज शिंदे जैसे तमाम विधायकों के लिए दुखी होकर उद्धव ठाकरे को कहना पड़ा कि शिवसेना और बालासाहेब के ठाकरे के कारण राजनैतिक कद हासिल करने वाले विद्रोहियों को उनके बेटे को मुख्यमंत्री पद से हटाने का आनंद और संतोष मिले।

इस बार सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के साथ राज्यपाल ने कोई गलती नहीं की। उन्होंने तीन आधार बनाकर उद्धव ठाकरे को बहुमत साबित करने के लिए कहा। निर्दलीय विधायकों ने चि_ी लिख कर दावा किया है कि एमवीए सरकार अल्पमत में है। दूसरा, मीडिया में ऐसी खबरें हैं कि लगभग चालीस विधायक शिवसेना का साथ छोड़ चुके हैं और तीसरा, विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस का कहना है कि सरकार अल्पमत में है। बेशक यह बिना हींग फिटकरी का चोखा रंग था। सियासत में यही हुनर इन दिनों रंग जमा रहे हैं। महाराष्ट्र के राजनीति ने जितने रंग दिखाए हैं उतने एक जगह मिलने मुश्किल हैं। पहले अजीत पवार ही फडणवीस के साथ सरकार बना गए। तीन दिनों में शरद पवार के एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद सरकार गिर गई। इससे पहले उद्धव ठाकरे को सीएम पद देना भाजपा को गवारा नहीं हुआ जबकि दोनों मिलकर चुनाव लड़े थे। भाजपा को एनसीपी और कांग्रेस के साथ उद्धव का यह गठबंधन फूटी आंख से भी न सुहाने वाला था। अब जो भाजपा ने किया है उसे बदले की सियासत में एकदम फिट करार दिया जा सकता है। इस बार न केवल उद्धव को पद छोड़ना पड़ा, बल्कि शिवसेना भी टूट गई। डूबती कश्ती को बचाने की कोशिश उद्धव ने की भी।

उन्होंने औरंगाबाद का नाम संभाजी नगर और उस्मानाबाद ज़िले का नाम धाराशिव करने की मंजूरी दे दी। अब सवाल यही है कि कौन सी शिवसेना जनता की होगी या जनता किसे पसंद करेगी। ये दोनों तरह के शिवसैनिक जब आमना-सामना करेंगे तो कैसा मंजर होगा? इस पूरे खेल में भाजपा चतुर खिलाड़ी बनकर फिर उभरी है। साम दाम दंड भेद के साथ हर हथकंडा अपनाने के बाद उसके बारे में यह कहना भी क्या मायने रखता है कि कभी जनता के बीच तो जाना ही है। वहां नए नेरेटिव तैयार होंगे नई बिसात पर बिछने के लिए।

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