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लेख - November 25, 2022

चुनाव आयोग पर नई बहस

-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-

चुनाव आयोग की स्वायत्तता, निष्पक्षता, तटस्थता और निर्भीकता पर भले ही हमें पूरा भरोसा हो, लेकिन सर्वोच्च अदालत के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के कुछ संदेह और सुझाव जरूर हैं। संविधान पीठ चाहती है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति समिति में देश के प्रधान न्यायाधीश को भी शामिल किया जाए। इससे नियुक्ति की प्रक्रिया और चयन में ‘तटस्थता’ सुनिश्चित हो सकेगी। ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक पद पर बिठाया जा सकेगा, जो खुद को सरकार के सामने बाध्य अथवा भयभीत न होने दे। तमाम राजनीतिक दबावों से भी अप्रभावित रह सके। देश के अटॉर्नी जनरल और सॉलिसीटर जनरल ने इसे कार्यपालिका में न्यायपालिका का दखल माना है। वे इसे ‘लोकतंत्र पर खतरा’ भी मानते हैं। शीर्ष विधि अधिकारियों का मानना है कि इससे संविधान फिर से लिखना पड़ सकता है। संविधान ने लोकतंत्र के अलग-अलग स्तंभों और उनकी शक्तियों का वर्गीकरण तय कर रखा है, फिर हस्तक्षेप की गुंज़ाइश कहां है? दरअसल संदर्भ यह था कि कैबिनेट ने पंजाब काडर के आईएएस अधिकारी रहे अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया है। संविधान पीठ ने सिर्फ नियुक्ति-प्रक्रिया देखने के लिए उस केस की फाइल मांगी है, जिस पर अटॉर्नी जनरल ने आपत्ति दर्ज कराई है। संविधान पीठ को अधिकारी की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति और चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति में कुछ विसंगतियां लगती हैं।

प्रधान न्यायाधीश को नियुक्ति में एक पक्ष बनाने का सुझाव तो प्रसंगवश है। जस्टिस केएम जोसेफ ने जवाब दिया कि सीबीआई निदेशक और केंद्रीय सतर्कता आयुक्तों की नियुक्ति में प्रधान न्यायाधीश भी एक पक्ष होते हैं। तो क्या लोकतंत्र खतरे में पड़ गया? दरअसल यह संविधान पीठ और कार्यपालिका के बीच एक संवैधानिक चुनौती बन गई है, जिसे हर हाल में संबोधित किया जाना चाहिए। संविधान पीठ का सरोकार और सवाल यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और शेष दो आयुक्तों के कार्यकाल 6 साल तय हैं। उन्हें पूरा क्यों नहीं किया जा रहा है? मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त तय कार्यकाल से पहले ही सेवानिवृत्त हो रहे हैं अथवा उन्हें इस्तीफे के लिए बाध्य किया जा रहा है? संविधान पीठ की चिंता है कि यदि सरकार अपने ‘यस मैन’ को आयुक्त नियुक्त करेगी, तो ऐसे व्यक्ति की सोच भी सरकार जैसी ही होगी। देखने में सब कुछ ठीक लगता है, लेकिन उसे कार्य करने में स्वतंत्रता है या नहीं, यह गंभीर सवाल है। आखिर यह देश के चुनाव आयोग का सवाल है, जो पूर्णत: स्वायत्त और स्वतंत्र होना चाहिए। संविधान पीठ के अध्यक्ष जस्टिस केएम जोसेफ हैं, जो इस केस के जरिए चुनाव आयोग की भूमिका और स्वायत्तता में महत्वपूर्ण सुधारों के पक्षधर हैं। उनके सामने नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका भी है। भारत में चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्थान है, जो स्वतंत्र भारत में चुनाव-दर-चुनाव कराता रहा है। उसने नागरिकों के मताधिकार को जि़ंदा और प्रासंगिक बनाए रखा है।

आयोग के संदर्भ में प्रत्येक नागरिक का मताधिकार अनुच्छेद 326 के तहत एक वैधानिक नहीं, संवैधानिक अधिकार है। जिस तरह चुनाव सम्पन्न कराए जाते रहे हैं और सत्ता का हस्तांतरण निर्बाध रूप से हो जाता है, उसके लिए चुनाव आयोग की प्रशंसा भी की जाती रही है। हमारे चुनाव आयोग ने कई अन्य देशों में भी तटस्थ और निष्पक्ष चुनावों का मार्ग प्रशस्त किया है। यह प्रक्रिया तभी संभव होती रही है, जब आयोग को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। इसकी कार्य-प्रणाली प्रथमद्रष्ट्या कार्यपालिका और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से स्वतंत्र रही है, लेकिन कुछ उदाहरण हैं, जब आयोग केंद्र सरकार का ही एक हिस्सा प्रतीत होता रहा है। उसे प्रधानमंत्री दफ्तर से ‘अघोषित’ निर्देश दिए जाते हैं और वह उसी के अनुरूप चुनाव संबंधी फैसले लेता है। कोरोना महामारी के दौरान ऐसा देखा गया है। आचार संहिता को लेकर भी आयोग के फैसले ‘राजनीतिक’ और ‘भेदभावपूर्ण’ रहे हैं। दरअसल दशकों से यह मांग उठती रही है कि चुनाव आयोग में नियुक्ति ‘द्विपक्षीय’ होनी चाहिए। सरकार के अलावा भी एक और पक्ष होना चाहिए, लिहाजा देश के प्रधान न्यायाधीश की मौजूदगी का सुझाव दिया गया है। संविधान पीठ ने दखल दिया है, तो सुधार व्यापक और दीर्घकालीन होने चाहिए। तदर्थवाद की कोई गुंज़ाइश नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग की शख्सियत वैसी ही हो, जैसी टीएन शेषन के कार्यकाल के दौरान थी।

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