आम जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व न्यायपालिका का
-सनत कुमार जैन-
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने दिल्ली में आयोजित डॉ. एल.एम. सिंघवी मेमोरियल लेक्चर में कहा हमारे संविधान की प्रस्तावना में लिखा हुआ है हम भारत के लोग इस वाक्य को उन्होंने नए तरीके से परिभाषित किया। जिसका मतलब उन्होंने निकाला की शक्ति लोगों में है। उनके जनादेश में हैं। उनके विवेक में बसती है। उन्होंने कांस्टीट्यूशन अमेंडमेंट बिल का उल्लेख करते हुए कहा लोकसभा ने सर्वसम्मति से वोटिंग की ना कोई अनुपस्थित था ना किसी ने विरोध किया राज्यसभा में सभी की सहमति से पास हुआ। इसी अध्यादेश की न्यायिक नियुक्ति आयोग को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। उन्होंने कहा न्यायपालिका कभी भी विधायिका या कार्यपालिका नहीं बन सकती है। शासन के एक अंग के दूसरे अंग के काम करने के क्षेत्र में किसी भी तरह की घुसपैठ शासन की व्यवस्था को भंग कर सकती है। यह कहकर उन्होंने अपनी राज भक्ति को प्रदर्शित करने का ही काम किया है।
उपराष्ट्रपति धनगड़ स्वयं विधिवेता हैं। संविधान ने भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकारों के साथ भारत के शासन में आम नागरिकों की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। भारत का लिखित संविधान है। इसमें विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए दायित्वों का निर्धारण किया गया है। उनके अधिकारों का भी वर्णन किया गया है। संविधान निर्माताओं ने तीनों अंगों के लिए जो कार्य निश्चित किए हैं। उसमें न्यायपालिका के ऊपर यह जिम्मेदारी सौंपी है। उसमें आम जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व न्यायपालिका का सुनिश्चित है। उपराष्ट्रपति को यह समझना होगा संविधान ने न्यायपालिका को सत्ता को प्रभावित करने के कोई अधिकार नहीं दिए दिया है। विधायिका और कार्यपालिका द्वारा किए जा रहे कार्यों की समीक्षा करने यदि विधायिका और कार्यपालिका मौलिक अधिकारों को हनन करने वाले कोई भी कानून या नियम बना कर आम जनता की स्वतंत्रता निजिता और अधिकारों को बाधित करने का काम करेंगी। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका उस पर जो फैसला करेगी। वह विधायिका और कार्यपालिका के लिए मान्य होगा। इसके लिए संविधान ने संवैधानिक संस्थाओं की जिम्मेदारी तय की है।
आदरणीय उपराष्ट्रपति जी को यह भी समझना होगा कि संविधान ने ब्रह्मा विष्णु और महेश की तरह सबके अलग-अलग कार्य निर्धारित किए हैं। किसी को भी एक दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप करने की आजादी नहीं दी है। जब देश में जनता के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा हो। मनमाने कानून बनाए जा रहे हो। मनमाने तरीके से नियुक्तियां की जा रही हों। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका जिसे प्रत्यक्ष रूप से कोई भी अधिकार नहीं दिए गए हैं। लेकिन अंकुश न्यायपालिका को ही दिया गया है। पागल हाथी को नियंत्रित करने का काम महावत अंकुश से करता है। इसी तरीके से हमारे संविधान निर्माताओं ने जिन्हें शक्तियां दी थी। उनके ऊपर अंकुश रखने के लिए न्यायपालिका का गठन किया था। इसके अधिकार सर्वोपरि हैं। पिछले 7 दशक में जब-जब बहुमत के बल पर आम जनता के मौलिक अधिकारों के हनन करने के लिए सरकारों ने जो कानून बनाए उन्हें न्यायपालिका ने खत्म अथवा संसोधन करने का काम किया है।
उपराष्ट्रपति महोदय को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल के समय भी विधायिका के बनाए हुए कानून ही प्रचलित थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखना पड़ा था। भारतीय न्यायपालिका ने पिछले 7 दशकों में संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर सरकार के खिलाफ ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं। जिसके कारण आज भी लोकतंत्र सुरक्षित है। भाजपा यदि सत्ता में है तो वह भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के कारण है।
उपराष्ट्रपति महोदय जब आप पश्चिमबंगाल के राज्यपाल थे। तब चुनी हुई निर्वाचित सरकार का किस तरीके से सम्मान किया है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। व्यक्ति अपना दोहरा मापदंड और दोहरा चरित्र अपना सकता है दिखा सकता है। लेकिन न्यायपालिका को हर निर्णय के पीछे संविधान की पृष्ठभूमि में मिले हुए अधिकारों के साथ निर्णय करना पड़ता है। न्यायपालिका को यह भी पता होता है कि उसके पास अपने निर्णय को मान्य कराने के लिए अलग से कोई अमला या फोर्स नहीं है। हां न्यायपालिका के निर्णय को जब विधायिका और कार्यपालिका मानने से इंकार कर देंगी। ऐसी स्थिति में चौथी शक्ति विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (पत्रकारिता) के रूप में सिंहासन के जो चार पहिए हैं। न्यायपालिका के निर्णय के विपरीत जाकर यदि कोई काम किया जाता है। तो अभिव्यक्ति और नागरिकों की स्वतंत्रता के सामने बड़ी से बड़ी सत्ता हवा के झोंके से उड़ जाती है। यही आपातकाल के बाद हुआ था। पिछले 8 वर्षों में निष्पक्ष पत्रकारिता के क्षेत्र में कई अवरोध तैयार कर दिए गए हैं। वर्तमान मीडिया आर्थिक आधार पर शासन के ऊपर आश्रित हो गया है। नियम कानूनों के जरिए पत्रकारिता को नैतिक एवं स्वतंत्र आचरण करने से बाधित किया जा रहा है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया का ठिकाना अब जेलों में दिखने लगा है। सत्ता में बैठे हुए लोग अपने विरोध में कुछ सुनना ही नहीं चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका को भी सरकार के भरोसे छोड़ दिया गया तो निश्चित रूप से यह व्यवस्था तानाशाही वाले शासन व्यवस्था की ओर चली जाएगी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं और आम भारत के लोग एक बार फिर गुलामी की जंजीरों से बांध दिए जाएंगे। घोषित आपातकाल में वह नहीं हुआ जो अघोषित आपातकाल में हो रहा है। घोषित आपातकाल के दौरान जो हुआ उसकी जवाबदेही तय थी। लेकिन आज जो हो रहा है उसमें किसकी जवाबदेही है यह हम सभी को सोचना होगा। भारत में जब तक तीसरा स्तंभ न्यायपालिका और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता है। जिसमें विचारों की अभिव्यक्ति और निर्णय लेने की संवैधानिक स्वतंत्रता है। यदि यह नहीं रहेगी तो स्वतंत्रता की कल्पना कर पाना भी बेमानी होगा। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को हाल में आइना दिखा दिया है।
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