छेड़छाड़, हिंसा और महिलाएं
-पीके खुराना-
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
पच्चीस नवंबर का दिन इंटरनैशनल डे फार दि एलिमिनेशन आफ वायलेंस अगेन्स्ट विमेन के रूप में मनाया जाता है। यह कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब देश की राजधानी दिल्ली में स्लट वॉक के माध्यम से महिलाओं की एक और समस्या यानि छेड़छाड़ या शील हरण जैसी घटनाओं के प्रति विरोध प्रदर्शन हुआ था। हिंसा और छेड़छाड़ दो ऐसी समस्याएं हैं जिनकी रोकथाम के लिए अभी ज्य़ादा कुछ नहीं किया गया है। महंगाई के इस ज़माने में अक्सर लड़कियों और महिलाओं को भी काम पर जाना होता है ताकि परिवार के बजट में कुछ अतिरिक्त योगदान हो सके। ट्रेन और बस की भीड़भाड़ में आसपास के पुरुषों के कामुक स्पर्श किसी भी महिला के लिए सचमुच तकलीफदेह होते हैं और इसके निराकरण का कोई प्रभावी तरीका नहीं है। इससे भी ज्यादा दुखद स्थिति तब होती है जब किसी महिला का कोई रिश्तेदार ही उसके शील हरण का प्रयास करे। इसी प्रकार बहुत सी महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। शराबी पतियों से ही नहीं, गुस्सैल पतियों से भी पत्नियां अकारण पिटती हैं और अपनी किस्मत को दोष देने के अलावा कुछ नहीं कर पातीं। छेड़छाड़ को लेकर तो इस पुरुष प्रधान समाज का नज़रिया बहुत अजीब है। अक्सर तर्क दिया जाता है कि लड़कियों का पहनावा ऐसा उत्तेजक होता है जो पुरुषों को उनके नज़दीक आने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुस्थिति यह है कि यह तर्क एकदम आधारहीन है। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि सलवार-कमीज़ पहनने वाली लडक़ी को जीन्स-टॉप पहनने वाली लडक़ी की अपेक्षा कम परेशानियों का सामना करना पड़ता हो। कामकाजी महिलाओं पर दोहरी-तिहरी जि़म्मेदारी है।
आफिस का काम, घर का काम, बच्चों की देखभाल, बूढ़े सास-ससुर की आवश्यकताओं का ध्यान आदि ऐसे कितने ही अलग-अलग काम अपने आप में फुलटाइम जॉब जैसे हैं। इसके बावजूद समाज में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता का भाव ज्यादा प्रखर नहीं है। महिलाओं के शील की रक्षा और उनकी सुरक्षा एक सामाजिक दायित्व है और इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए लेकिन इसके लिए समाज, प्रशासन अथवा सरकार की ओर से कोई ऐसे प्रयास नहीं किए गए हैं जो पूर्णत: प्रभावी हों। हमारा पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचा ऐसा है जो पुरुषों को अतिरिक्त अधिकार देता है और महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहकर बहुत बार अपना मन मारना पड़ता है। विवाह के बाद तो एकबारगी लडक़ी की दुनिया ही बदल जाती है। सच कहा जाए तो हर परिवार की अपनी अलग आवश्यकताएं, अलग दिनचर्या और अपनी अलग पसंद होती है। लडक़ी को अपनी पुरानी आदतें और दिनचर्या भुलाकर नए परिवार के साथ सामंजस्य बिठाना होता है। यह जि़म्मेदारी पूरी तरह से लडक़ी पर ही होती है। शादी के बाद लडक़ी का वेतन ससुराल की आय में शामिल हो जाता है। इसके बावजूद महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ सकता है। महिलाओं की शारीरिक बनावट भी ऐसी है कि वे शारीरिक बल के मामले में पुरुषों से उन्नीस ठहरती हैं। इससे भी ज्यादा दुखदायी स्थिति तब आती है जब संसर्ग के फलस्वरूप गर्भ ठहर जाता है। वह गर्भ फुसलाकर किए गए प्यार का परिणाम हो या बलात्कार का, दोनों ही स्थितियों में हानि महिलाओं की है। स्लट वॉक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई थी कि पुरुषों की ही तरह महिलाओं को भी मनपसंद परिधान पहनने की स्वतंत्रता है और पहनावा ‘आमंत्रण’ नहीं है।
इस स्लट वॉक की खूब चर्चा हुई। अखबारों और खबरिया चैनलों ने इसे खूब उछाला लेकिन अगले ही दिन इसे भूल भी गए। इस पर कोई गहन चर्चा या मंत्रणा नहीं हुई। इसी तरह घरेलू हिंसा को भी अक्सर हल्के ढंग से नजऱअंदाज कर दिया जाता है। कोविड से पूर्व ‘मी टू’ आंदोलन भी खूब चर्चा में रहा जिसके माध्यम से महिलाओं ने अपने शारीरिक शोषण के बारे में बात की और कई शक्तिशाली और प्रतिष्ठित माने जाने वाले लोग भी इस आरोप के घेरे में आए, पर जल्दी ही इसे भी भुला दिया गया। यह हमारे दृष्टिकोण की ही खामी है कि महिलाओं की इन समस्याओं के निदान के कोई गंभीर प्रयास दिखाई नहीं देते। यह कहना शायद अतिशयोक्ति होगी कि सेक्सुअल पहल सिर्फ पुरुषों की ही तरफ से होती है, या यह भी कि शारीरिक हिंसा की पहल सिर्फ पुरुष ही करते हैं। कारण कुछ भी रहा हो, पर ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां सेक्सुअल पहल महिलाओं की ओर से हुई। तो भी, अधिकांश मामलों में छेड़छाड़ की शिकार महिलाओं का दोष नहीं होता। स्त्रियां अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ यदि स्वाभाविक रूप से भी हंस-बोल लें तो अक्सर उसके गलत अर्थ निकाल लिए जाते हैं। जिस प्रकार एक पुरुष अपने अन्य पुरुष सहकर्मियों में से सिर्फ कुछ लोगों को ही ज्य़ादा पसंद करते हैं या किसी एक के साथ ही गहरी मित्रता करते हैं, वैसे ही कोई महिला भी किसी एक पुरुष सहकर्मी के ज्य़ादा नज़दीक हो तो यह भी स्वाभाविक मित्रता है, ‘आमंत्रण’ नहीं, पर कई बार इस खुलेपन को भी आमंत्रण मान लिया जाता है। स्त्रियों के प्रति छेड़छाड़ अब इतनी आम है कि इसे नजऱअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
इसी प्रकार घरेलू हिंसा पर भी रोकथाम होनी चाहिए। दोनों ही तरह की ज्यादतियों से बचने के लिए महिलाओं को अपनी सुरक्षा के उपायों के प्रति शिक्षित किया जाना चाहिए तथा पूरे समाज को भी इन समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए। अब समय आ गया है जब हमें समझ लेना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं है कि जब तक उग्र विरोध प्रदर्शन न हों, गुस्से का इज़हार न किया जाए, तब तक समस्या की उपेक्षा करते रहें, इसके विपरीत सच तो यह है कि किसी समस्या के रोग बनने से पहले ही उसका निदान कम दुखदायी और ज्यादा कारगर होता है। अब समय आ गया है कि समाज में इन समस्याओं के प्रति जागरूकता हो और इनके स्थायी निदान के लिए गंभीर प्रयास आरंभ हो जाएं। समस्या यह है कि छेड़छाड़ या बलात्कार की शिकार महिला कई बार तो समाज, परिवार और खुद से भी कटकर डिप्रेशन में चली जाती है या सारी उम्र पुरुष के संसर्ग से घबराती रहती है। उसके मन में हमेशा के लिए एक अनजाना डर बैठ जाता है। इसकी रोकथाम के लिए यह आवश्यक है कि शरारत करने वाले लोगों को कड़ी से कड़ी सजा मिले। महिलाएं हमारी माएं, बहनें, बेटियां, मित्र और सहकर्मी हैं और उन्हें भी वही सम्मान और सुरक्षा का बोध मिलना चाहिए जो पुरुषों को सहज ही उपलब्ध है।
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