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लेख - September 14, 2021

तालिबान, भारत और दुनिया के देश

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार विश्व भर के देशों के लिए कितनी घातक हो सकती है, इसके साफ संकेत भारत की ओर से अधिकारिक तौर पर दे दिए गए हैं, यदि इसके बाद भी दुनिया के देश भारत की बात को गंभीरता से नहीं लेंगे तो यही समझा जाएगा कि आतंक को 21वीं सदी में राजनीतिक स्तर से स्वीकार्यता मिलने जा रही है। पहले हिंसा करो, फिर अपनी सत्ता उस हिंसा के बूते स्थापित करो और उसके बाद विश्व बिरादरी का समर्थन प्राप्त कर लो। तालिबान यदि सफल होता है तो समझना चाहिए कि दुनिया के लिए यही संदेश है।

वस्तुतः पिछले महीने की 15 तारीख को काबुल पर कब्जा जमाने के बाद तालिबान की कथनी और करनी का सीधा फर्क जिसमें महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों की अनदेखी लगातार की जा रही है, साफ दिखाई दे रही है। तालिबानी राज में काबुल यूनिवर्सिटी की पहली क्लास में जिस तरह से युवतियों को बुर्के में बुलाया गया, शरिया कानून की शपथ दिलाई गई। लाइटवेट बाक्सिंग चैंपियन सीमा रेजई जैसी तमाम महिलाओं को जान से मारने की धमकी देकर देश छोड़ने को मजबूर किया जाना। काबुल सहित कई शहरों से अफगान संगीत के कलाकारों का जिन्दा रहने के लिए देश छोड़कर भागना जैसी बाहर आई तमाम तस्वीरों को देखा जाए तो सीधे तौर पर समझ आ जाता है कि तालिबान यहां क्या करने जा रहा है। आतंक का भय सभी के चेहरों पर साफ दिखाई दे रहा है। इसलिए ही भारत ने विश्व बिरादरी से अफगानिस्तान के मुद्दे पर एकजुट होने को कहा है।

भारत के अपनी बात से साफ कर दिया है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करने की सूरत में कभी तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं देगा। विदेश नीति के लिहाज से देखें तो अफगानिस्तान में 20 साल तक भारत का शानदार रिकॉर्ड रहा है। वह विकास में प्रमुख साझेदार था और पाकिस्तान की रणनीतिक गहराई को कम करता जा रहा था। जो सीधे आंतक के खात्मे के रास्ते पर यहां चलना था। किंतु तालिबान की वापसी के साथ ही वह सब मिट्टी में मिल गया है। यहां पाकिस्तान और चीन फिर से प्रभावी हो गए हैं। पाकिस्तान का पंजशीर में अपनी सेना का तालिबान के समर्थन में कार्य करना और बीजिंग का अफगानिस्तान को आर्थिक मदद देने का एलान, जिसमें 31 मिलियन (3.1 करोड़) अमरीकी डालर की सहायता देने की घोषणा की गई है, जैसी घटनाओं से साफ है कि ये दोनों देश यहां की पुरासंपदा के लाभ लेने और भारत को कमजोर करने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आतंक किसी का सगा नहीं होता है, वह हर हाल में अपना ही स्वार्थ देखता है।

इसके साथ ही अंदेशा इस बात का भी है कि तालिबान की मदद से अफगानिस्तान में अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन और अधिक मजबूत होंगे। इसका सीधा अर्थ है दुनिया के तमाम देशों के लिए आतंक का खतरा बढ़ जाना। हद तो यह है कि तालिबानी सरकार का मुखिया मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद है जो कि संयुक्त राष्ट्र की आतंकियों की लिस्ट में शामिल है। उसने ही 2001 में अफगानिस्तान के बालियान प्रांत में बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ने की मंजूरी दी थी। तालिबान ने जिस तरह छंटे हुए, खूंखार और इनामी आतंकियों को अपनी अंतरिम सरकार में शामिल किया है और घोषणा की है कि उनकी सरकार शरिया के हिसाब से चलेगी। उससे साफ है कि 21वीं सदी में अफगानिस्तान में फिर से मध्ययुगीन इस्लामिक क्रूरता की वापसी हो चुकी है। शरिया वाले शासन में अल्पसंख्यक के लिए कोई बेहतर भविष्य नहीं होता है।

यही कारण है कि ब्रिटेन के खुफिया एजेंसी के प्रमुख एम प्5 के डायरेक्टर जनरल कैन मैकेलम ने भी भारतीय सुर में सुर मिलाया है और चेतावनी दी है कि अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबानियों के आने के बाद से दुनिया में 9/11 जैसे आतंकी हमलों का खतरा बढ़ जाएगा। उनकी जो बात स्पष्ट रूप से सामने आई है, उस पर सभी को गंभीरता के साथ गौर करना चाहिए। वस्तुतः उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि अमेरिका में आतंकी हमलों के बाद अल कायदा के दहशतगर्द अफगानिस्तान में सुकून से घूम रहे थे। वे एकबार फिर से खड़े हो सकते हैं।

इसी तरह से अफगानिस्तान पर भारत के रुख पर आस्ट्रेलिया भी साथ आया है। भारत और आस्ट्रेलिया के विदेश व रक्षा मंत्रियों को मिला कर गठित टू प्लस टू व्यवस्था के तहत पहली वार्ता में जारी साझा प्रेस कांफ्रेंस में लिखे शब्दों की गहराई को समझने की आज सभी को जरूरत है। इससे संदेश साफ है अफगानिस्तान की धरती को आतंक की शरणस्थली नहीं बनने दिया जाएगा। यहां भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के वक्तव्य की गंभीरता को भी समझना होगा, जिसमें कहा गया कि हम इस बात पर सहमत हैं कि अफगानिस्तान के मुद्दे पर विश्व बिरादरी में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2592 को लेकर एकजुटता होनी चाहिए। जिसमें कि तालिबान से कहा गया है कि वह सुनिश्चित करे कि उसकी जमीन का इस्तेमाल किसी दूसरे देश के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लि ना हो और महिलाओं व अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार की रक्षा हो।

आस्ट्रेलिया की विदेश एवं महिला मामलों की मंत्री मैरिस पायने ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से भारत के साथ है इसमें सभी का हित है कि अफगानिस्तान आतंकियों की शरणस्थली नहीं बने। इस बीच यूएन महासचिव एंतोनियो गुतारेस भी वैश्विक आतंकवाद पर चिंता जताते हुए चेतावनी दे रहे हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अन्य समूहों के हौसले बुलंद कर सकती है।

वास्तव में आज भारतीय विदेश मंत्री ने जिस तरह से विश्व समुदाय से अपील की है और भारत के समर्थन में अबतक दुनिया के कुछ ही देश साथ आए हैं, आज सिर्फ इतने भर से काम नहीं चलनेवाला है। यदि विश्व के तमाम देश तालिबान पर आंख बंद कर बैठे रहेंगे तो यही समझ आएगा कि पूरी दुनिया आनेवाले इस्लामिक आतंक को बहुत ही हल्के में ले रही है। अफगानिस्तान के जिन छह पड़ोसी देशों- चीन, ईरान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान और पाकिस्तान ने उसे जो अभी अपनी स्वीकार्यता की हरी झंडी दी है। जरूरी यह है कि अन्य देश इनके बहकावे में नहीं आएं।

अव्वल तो यह है कि तालिबान की सत्ता को राजनीतिक स्वीकार्यता मिलनी ही नहीं चाहिए और यदि अन्य लोगों के हित को देखने हुए ऐसा करना अति आवश्यक है तब यह अवश्य देखा जाए कि तालिबान ने क्या अपना हिंसा का मार्ग त्याग दिया है ? वह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत राज्य का संचालन करने के लिए तैयार है।

यहां कहना होगा कि अफगानिस्तान में तालिबान की तरफ से गठित सरकार में दूसरे समुदायों और महिलाओं को भागीदारी नहीं मिलने के मामले को भारत ने लगातार उठाया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारतीय राजदूत ने तालिबान की व्यवस्था को समग्र नहीं होने एवं बिखराव पैदा करने वाला करार दिया है। हां, यदि तालिबान इस व्यवस्था में सुधार करता है तब कुछ महीने उसे ऐसा करते हुए देखा जाना चाहिए, पहले वह दुनिया का विश्वास अर्जित करे। उसके बाद अवश्य आगे विश्व समुदाय उसके लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकार्यता को हरी झण्डी दे सकता है। किंतु यह ध्यान रहे कि इसके लिए तालिबान को आतंक का रास्ता पूरी तरह से त्यागना होगा, उसके पहले उसकी सत्ता को दुनिया भर के देशों द्वारा स्वीकार्य नहीं करना ही मानवता के हित में है।

(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं न्यूज एजेंसी की पत्रकारिता से जुड़े हैं।)

 

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