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लेख - September 21, 2021

भारत का साथी अमरीका या चीन?

-भरत झुनझुनवाला-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

तालिबान और पाकिस्तान के गठबंधन की कश्मीर पर निगाह है। ये दोनों पूरी तरह आपस में गुंथे हुए हैं। हमें तय करना है कि इस गठबंधन का सामना करने के लिए हम अमरीका का साथ लेंगे अथवा चीन का? एक संभावना यह है कि भारत और अमरीका तालिबान-पाकिस्तान और चीन के गठबंधन का सामना करें। दूसरी संभावना है कि भारत और चीन मिलकर तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन का सामना करें। आज विश्व का सामरिक विभाजन अमरीका और चीन के बीच है। हम अमरीका का साथ देंगे तो अमरीका के दुश्मन चीन की स्वाभाविक प्रवृत्ति होगी कि वह तालिबान एवं पाकिस्तान के साथ जुड़े। यों भी चीन के पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध हैं। इसलिए चीन का झुकाव मूल रूप से तालिबान-पाकिस्तान की तरफ होगा। लेकिन यह गठबंधन हमारे लिए कष्टप्रद होगा क्योंकि तब हमारे पश्चिमी छोर से पूर्वी छोर तक तालिबान-पाकिस्तान-चीन के गठबंधन द्वारा हम घेर लिए जाएंगे। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान-चीन के गठबंधन को चीन की आर्थिक सहायता मिल जाएगी तो वह ताकतवर हो जाएगा। इसलिए हमें दूसरी संभावना पर विचार करना चाहिए कि भारत और चीन मिलकर तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन का सामना करें। यह संभावना वर्तमान में कठिन दिखती है, लेकिन मेरे आकलन में यह असंभव नहीं है। कारण यह कि चीन को पाकिस्तान से जो लगाव है, वह मुख्यतः वाणिज्यिक है। यदि चीन को भारत से वाणिज्यिक और व्यापारिक लाभ मिलता है तो चीन को पाकिस्तान का त्याग करने में कठिनाई नहीं होगी।

उस स्थिति में भारत और चीन मिलकर पाकिस्तान और तालिबान के गठबंधन का सामना कर सकेंगे। अतः हमें अमरीका और चीन के बीच अपने सहयोगी का चयन करना है। अपने सहयोगी को चिन्हित करने के लिए सर्वप्रथम उसकी ताकत को आंकना जरूरी है। इसमें कोई संशय नहीं कि बीते 100 वर्षों में विश्व के अधिकांश तकनीकी आविष्कार पश्चिमी देशों अथवा अमरीका द्वारा किए गए हैं। ये आविष्कार ही अमरीका की ताकत हैं। जैसे परमाणु बम, जेट हवाई जहाज, सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, इंटरनेट इत्यादि। ये सभी आविष्कार अमरीका द्वारा किए गए। लेकिन बीते दो दशकों में चीन ने तकनीकी क्षेत्र में भारी प्रगति की है। चीन ने स्वयं अपने लड़ाकू विमान बनाए हैं और इन्हें राफेल से नहीं खरीदा है। उन्होंने परमाणु अस्त्र बना लिए हैं। मंगल ग्रह में अमरीका की बराबरी में अपने यान को उतारा है और अमरीका से आगे बढ़कर सूर्य के बराबर का तापमान अपनी प्रयोगशाला में बनाया है। चीन के जूम और कैम स्कैनर जैसे ऐप प्रतिबंधों के बावजूद भारत और अमरीका में पूरी तरह व्याप्त हैं। इसलिए पूर्व में अमरीका ने जो भी तकनीकी महारत हासिल की थी, वह वर्तमान में फिसल गई है। आज चीन और अमरीका तकनीकी दृष्टि से बराबर से दिखते हैं। इसलिए तकनीकी आधार पर हम अपने मित्र का चयन नहीं कर सकते हैं। चीन की आर्थिक ताकत भी अमरीका के बराबर पहुंच चुकी है।

सहयोगी चयन करने का एक आधार सामरिक है। अमरीका के भारत पर कई उपकार हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्सेंट चर्चिल अमरीका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट से मिलने अमरीका गए थे। उन्होंने रुजवेल्ट को विश्व युद्ध में इंग्लैंड की मदद करने का आग्रह किया। बताते हैं कि रुजवेल्ट ने मदद देने की एक शर्त यह रखी थी कि इंग्लैंड को भारत जैसे अपने उपनिवेशों को स्वतंत्र करना होगा। हम मान सकते हैं रुजवेल्ट का वह दबाव भी इंग्लैंड द्वारा भारत को स्वतंत्रता दिलाने में कुछ हद तक कारगर रहा होगा। इसके बाद 60 के दशक में अमरीका ने भारत को पब्लिक लॉ 480 के अंतर्गत मुफ्त अनाज भारी मात्रा में उपलब्ध कराए थे। उस समय हमारे देश में सूखा पड़ गया था और हम भुखमरी के कगार पर आ गए थे। अमरीका के इन उपकारों को मानते हुए हमें अमरीका के दूसरे पक्ष को भी देखना होगा। अमरीका ने सउदी अरब में लोकतंत्र विरोधी सरकार का निरंतर साथ दिया है। पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान समेत तमाम सहायता दी है, जिनका उपयोग पाकिस्तान के द्वारा भारत के विरोध में किया जा सकता है। अफगानिस्तान में अपने द्वारा बनाई गई सरकार को जिस प्रकार अमरीका छोड़ कर भागा है, उससे उसमें विश्वास कम ही पैदा होता है। पूर्व में दक्षिण वियतनाम में भी ऐसा ही हुआ था। अतः अमरीका का अपने साथियों के प्रति व्यवहार भी बहुत आशाजनक नहीं रहा है। हाल में ही यूरोपीय देशों के प्रमुख ने कहा है कि अब यूरोपीय देशों को विश्व स्तर पर सैन्य गतिविधियां करने के लिए अमरीका के इतर अपनी ताकत को बनाना होगा। इसलिए पूर्व में अमरीका का चरित्र जो भी रहा हो, वर्तमान में अमरीका स्थायी एवं ठोस साथी बना रहेगा, यह संदेह का विषय बना रहता है। दूसरी तरफ हमारा चीन से 1962 से शुरू हुआ सरहद का विवाद लगातार जारी है। चीन ने हमको चारों तरफ से घेरने का प्रयास किया है जैसे श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश को भारी ऋण दिए हैं। अतः हमारे सामने कुएं और खाई के बीच चयन करने जैसी स्थिति है। अमरीका भरोसेमंद नहीं है, जबकि चीन के साथ हमारा लगातार विवाद रहा है। इन दोनों विकल्पों को सैन्य दृष्टि से भी देखना चाहिए।

यदि हम चीन के साथ हाथ मिलाते हैं तो भारत-चीन का गठबंधन तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन पर अंकुश करने में सफल होने की संभावना अधिक दिखती है, चूंकि तब तालिबान-पाकिस्तान को हम घेर सकेंगे। लेकिन इस दिशा में हमें चीन के साथ अपना सरहद का विवाद निपटाना पड़ेगा। दूसरी तरफ यदि हम अमरीका के साथ हाथ मिलाते हैं तो तालिबान-पाकिस्तान-चीन का विशाल गठबंधन हमारे सामने खड़ा होगा जिसका सामना करना कठिन होगा, चूंकि चीन की आर्थिक ताकत इस गठबंधन को पोसेगी। अमरीका के भरोसेमंद न होने का संकट भी बना रहेगा। इसलिए मेरा मानना है कि हमें चीन के साथ अपने सरहद के विवाद को निपटाना चाहिए और वर्तमान में जो बड़ा संकट तालिबान-पाकिस्तान-चीन के गठबंधन के बनने का हमारे सामने खड़ा हुआ है, उसे क्रियान्वित होने से रोकने का प्रयास करना चाहिए। हमें तय करना होगा कि बड़ा दुश्मन कौन? तालिबान-पाकिस्तान या चीन? चीन के साथ हमारी दुश्मनी 1962 के युद्ध से शुरू हुई है। उस समय भी चीन ने हमें सबक सिखाया था, लेकिन हमारी भूमि पर कब्जा नहीं किया था। नेविल मैक्सवेल द्वारा लिखी पुस्तक ‘इंडियाज चाइना वार’ के अनुसार भारत के रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने चीन को उकसाया था। उस खोजबीन में जाने के स्थान पर आगे की देखनी चाहिए। इस समय हमें चीन से कम और तालिबान-पाकिस्तान से खतरा अधिक है। इसलिए छोटे दुश्मन चीन से मिलकर बड़े दुश्मन तालिबान-पाकिस्तान का सामना करना चाहिए।

 

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