शरणार्थी समस्या और कट्टरपंथ
.कुलदीप चंद अग्निहोत्री.
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
यह ठीक है कि उसने हमदानी को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दियाए लेकिन फिर भी उसने हमदानी के कहने पर अपनी एक पत्नी को तलाक दे दिया। कुतुबुद्दीन ने दो सगी बहनों से विवाह किया हुआ था। हमदानी का मानना था कि दो सगी बहनों से शादी शरीयत के खिलाफ है। इसे भी हमदानी का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि कुतुबुद्दीन ने कश्मीरियों का लिबास त्याग कर विदेशी सैयदों का लिबास पहनना शुरू कर दिया था। हमदानी इतने भर से संतुष्ट नहीं था। उसका जोर शायद कश्मीरियों को किसी भी तरह इस्लाम मत में मतान्तरित करने का था। लगता है कुतुबुद्दीन इस सीमा तक जाने को तैयार नहीं हुआ था। यही कारण था कि सैयद अली हमदानी कश्मीर में ज्यादा देर रुका नहीं। वह बार.बार आया जरूरए लेकिन निराश होकर ही कश्मीर से गया। धीरे.धीरे आने वाले सैयदों की संख्या भी बढ़ती गई और शाहमीर खानदान के राजाओं या सुल्तानों पर उनका प्रभाव भी। सैयद अली हमदानी के बाद मोर्चा उसके बेटे सैयद महमूद हमदानी ने संभाला। उसने जरूर कुतुबुद्दीन के वारिस सुल्तान सिकन्दर को बुतशिकन बना देने में कामयाबी हासिल की३
विश्व के किसी भी कोने में हमले या युद्ध की स्थिति में शरणार्थियों की समस्या पैदा होती है। इसके साथ यह भी एक सच है कि भारत समय.समय पर शरणार्थियों को आश्रय देता रहा है। यह शरणार्थी अधिकांश बार भारत में घुल.मिल गएए लेकिन शरणार्थियों की ऐसी भी लहर देखने को मिलती हैए जिसके कारण कट्टरपंथ में बढ़ोतरी हुई। कश्मीर शरणार्थियों के साथ आए कट्टरपंथ का सबसे बड़ा उदाहरण है। कश्मीर की जनसांख्यिकी के बदलाव में सैयद अली हमदानी की विशेष भूमिका मानी जाती है। बहुतों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि सैयद अली हमदानी तैमूरलंग के हमलों से त्रस्त होकर एक शरणार्थी के रूप में कश्मीर आए थे। कश्मीर में उन्हें शरण मिलीए लेकिन उसके बाद जबरन मतांतरण का ऐसी श्रृंखला प्रारंभ हुई जो किसी न किसी रूप में अब तक चल रही है। ऐसा माना जाता है कि सैयद अली हमदानी को यदि कश्मीर में शरण न मिली होती तो तो कश्मीर में बुतशिकन भी पैदा न होता या फिर राजा सुल्तान सिकन्दरए सुल्तान सिकन्दर से बुतशिकन में न बदल गया होता।
कश्मीर का इतिहास गवाह है कि फारस से आए सैयदों ने ही स्थानीय शासकों में यह भावना भर दी कि वे इन विदेशियों के चक्कर में आकर अपने ही बन्धु.बान्धवों पर अत्याचार करने लगे। यह ठीक है कि शाहमीर व चक वंश के शासक स्थानीय थे और उनके पूर्वज कश्मीरियों से भी पहले मतान्तरित हो चुके थेए लेकिन कश्मीरियों को मतान्तरित करने का उनका अभियान तैमूरलंग और सैयदों के संघर्ष के बाद ही शुरू हुआ। यहां शासक तो बदलते गएए लेकिन यह अभियान नहीं थमा जिसका जाग इन सैयदों ने मध्यकाल में लगाया था। क्या संयोग या दुर्योग है कि तजाकिस्तान तो लम्बे अरसे बाद एक बार फिर रूस के पंजों से मुक्त होकर आजाद होने के कगार पर पहुंच गयाए लेकिन कश्मीर में फारस के सैयदों के अभियान की परिणति 1990 में हुई जब मतान्तरित कश्मीरियों ने बचे.खुचे उन कश्मीरियों कोए जो मतान्तरित नहीं हुए थेए बन्दूक के बल पर घाटी से ही बाहर कर दिया। इसका उत्तरदायी हमदानी को माना जाए या तैमूरलंग कोए यह प्रश्न आज भी कश्मीर की घाटियों में गूंजता है। तैमूरलंग को तो फिर भी सैकड़ों साल बाद उसके देश तजाकिस्तान ने अपना राष्ट्र पुरुष घोषित कर दिया और उसे लंगड़ा कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया। सैयद अली हमदानी भी कश्मीर में मौला के रूप में जम गए। लेकिन उन कश्मीरियों का क्या जो आज भी अपने ही देश में दर.दर भटक रहे हैंए केवल इसलिए कि उन्होंने कश्यप ऋषि का रास्ता छोड़ कर हमदानी का रास्ता नहीं पकड़ा।
मुख्य प्रश्न यह है कि तैमूरलंग के भय से भाग कर कश्मीर में आने वाले सैयद उस समय के शासकों को प्रभावित कैसे कर सकेघ् अतिथि सत्कार कश्मीरियों की परम्परा रही है। लेकिन अपने आप को अलग.अलग सिलसिलों के सूफी बताने वाले इन सैयदों को शाहमीर वंश के शासकों ने इतना मुंह क्यों लगायाघ् जिस वक्त सैयद अली हमदानी भाग कर कश्मीर घाटी में पहुंचाए उस समय कश्मीर में शाहमीर खानदान के राजा कुतुबुद्दीन का शासन था। यह ठीक है कि उसने हमदानी को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दियाए लेकिन फिर भी उसने हमदानी के कहने पर अपनी एक पत्नी को तलाक दे दिया। कुतुबुद्दीन ने दो सगी बहनों से विवाह किया हुआ था। हमदानी का मानना था कि दो सगी बहनों से शादी शरीयत के खिलाफ है। इसे भी हमदानी का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि कुतुबुद्दीन ने कश्मीरियों का लिबास त्याग कर विदेशी सैयदों का लिबास पहनना शुरू कर दिया था। हमदानी इतने भर से संतुष्ट नहीं था। उसका जोर शायद कश्मीरियों को किसी भी तरह इस्लाम मत में मतान्तरित करने का था। लगता है कुतुबुद्दीन इस सीमा तक जाने को तैयार नहीं हुआ था। यही कारण था कि सैयद अली हमदानी कश्मीर में ज्यादा देर रुका नहीं। वह बार.बार आया जरूरए लेकिन निराश होकर ही कश्मीर से गया। धीरे.धीरे आने वाले सैयदों की संख्या भी बढ़ती गई और शाहमीर खानदान के राजाओं या सुल्तानों पर उनका प्रभाव भी। सैयद अली हमदानी के बाद मोर्चा उसके बेटे सैयद महमूद हमदानी ने संभाला। उसने जरूर कुतुबुद्दीन के वारिस सुल्तान सिकन्दर को बुतशिकन बना देने में कामयाबी हासिल की।
कश्मीर घाटी में ज्यादा मतान्तरण इसी बुतशिकन के शासन काल में हुआ। लेकिन लेकिन मूल प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। सैयदों के शिकंजे में शाहमीर वंश के राजा कैसे आ गएघ् इसका मुख्य कारण शाहमीरियों का मतान्तरण के कारण अपने समाज से कट जाना ही था। कश्मीर की मूल समस्या यहां से कश्मीरी पंडितों का पलायन है। लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित दूसरे राज्यों में शरण लिए हुए हैं। उनकी घर.वापसी के लिए केंद्र सरकार प्रयासरत तो हैए लेकिन अभी तक कोई संतोषजनक परिणाम सामने नहीं आया है। जब तक कश्मीरी पंडितों की घर.वापसी नहीं होतीए तब तक कश्मीर समस्या का संपूर्ण समाधान संभव नहीं है। बंदूक की नोक पर डराकर कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन के लिए मजबूर किया गया था। दुखद यह है कि आज भी घाटी में ऐसे तत्त्व मौजूद हैं जो चाहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की घर.वापसी नहीं होनी चाहिए। कश्मीर की समस्या के संपूर्ण समाधान में यही तत्त्व बाधक भी हैं। हालांकि सुखद यह है कि घाटी में एक ऐसा वर्ग भी उभरने लगा है जो सांप्रदायिक आधार पर नहीं सोचता हैए बल्कि उसकी सोच प्रोग्रेसिव है। इस वर्ग की सहायता से कश्मीरी पंडितों की घर.वापसी कराई जा सकती है। हाल के समय में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में प्रोग्रेसिव सोच वाले लोग उभर कर सामने आए हैं। भारत की प्रभुसत्ताए एकता और अखंडता में भी इनका पूर्ण विश्वास है। परंपरागत आधार पर सांप्रदायिक सोच वाले तत्त्व इससे जरूर निरुत्साहित हुए होंगे। इस तरह कश्मीर में अब परिवर्तन की बयार चल पड़ी है। प्रोग्रेसिव सोच वाले लोगों का आगे आना भारत के लिए अच्छी बात है। आशा की जानी चाहिए कि कश्मीरी पंडितों की घर.वापसी जल्द से जल्द होगी तथा कश्मीर समस्या का संपूर्ण समाधान भी संभव होगा।
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