उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: पूर्वी उत्तर प्रदेश के चुनावी मुद्दे और जमीनी हालात
-मोहन सिंह-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
हर चुनाव के नतीजे जातीय गुणा-गणित, धार्मिक गोलबंदी, राजनीतिक अस्मिता की पहचान के अलावा इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि किसी राज्य की सत्ता के अधीन आम लोग कैसा महसूस कर रहे हैं? 2022 तक कुल 7 राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं पर कई कारणों से उतर प्रदेश का विधानसभा चुनाव इस वक्त सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों के बीच जोर आजमाइश के केंद्र में है।
उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास योजनाओं के शिलान्यास-उद्घाटन के बहाने सबसे ज्यादा चुनावी दौरे हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव परिवर्तन रथ पर सवार होकर पूरे प्रदेश में ‘बाइस में बाईसाइकिल’ के नारे के तहत पूरा प्रदेश मथ रहे हैं। बसपा खेमे में अभी खामोशी है। विद्वतजन सम्मेलन के अलावा और कोई राजनीतिक सक्रियता सुश्री मायावती की ओर से अभी नजर नहीं आ रही है।
भाजपा बनारस में हुए विकास कार्यों को केंद्र में रखकर पूर्वी उत्तर प्रदेश का चुनावी जंग फतह करने के फिराक में है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के भव्य समारोह के पीछे का राजनीतिक मकसद दरअसल यही है।
गाजीपुर और मऊ के इर्द गिर्द मुख्तार अंसारी और उनके गुर्गों के अवैध निर्माण के ढहाने और पुलिसिया दबिश का संदेश भी बिल्कुल साफ है। पर विपक्षी दलों की ओर से यह सवाल उठना भी उतना ही स्वाभाविक है कि आखिर किस वजह से बृजेश सिंह-विनीत सिंह-धनन्जय सिंह इस सरकार में खुलेआम मनमानी भले न कर पा रहे हों, पर उन्हें कहीं न कहीं से थोड़ा राहत-संरक्षण तो मिल ही रहा है। इस सवाल को सपा के सहयोगी ओमप्रकाश राजभर खूब जोरशोर से उठा रहे हैं। वे खुद भी मुख्तार अंसारी से बांदा जेल में जाकर मिल आए हैं।
उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का इलाका भी पूर्वी उत्तर प्रदेश ही है। हाल-हाल तक गोरखपुर और बनारस गुंडई-दबंगई-बाहुबली राजनेताओं के हनक का केंद्र रहा है। सत्ता के संरक्षण में पालित-पोषित राजनेताओं का रसूख भी एक अरसे तक पूरे परवान था। कुछ हद तक योगी राज में ऐसे बाहुबली नेताओं के मनमानेपन पर रोक लगी है। ऐसा कोई भी देख-समझ और महसूस कर सकता है। कहना न होगा कि पूर्वांचल की राजनीति में यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है, और चर्चा में भी है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और चुनावी गणित
एक अरसे से पूर्वी उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी और बसपा का भी मजबूत गढ़ रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के चंदौली, जौनपुर, भदोही-मिर्जापुर, आजमगढ़ -मऊ और बलिया जिले में सपा-बसपा का मजबूत जनाधार है। सपा नेता मुलायम सिंह-अखिलेश यादव-मायावती को इस इलाके ने जमकर समर्थन भी किया है। पर सन् 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने बाद भाजपा-सपा-बसपा के सामाजिक समीकरण में खासा उलटफेर हुआ है।
अब बसपा मूल से निकले छोटे-छोटे राजनीतिक समूहों-मसलन सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल का भी किसी दल के पक्ष-विपक्ष में होने न होने के गुणा-गणित का इस इलाके के सामाजिक समीकरण पर गहरा असर है। ये दल अपने बूते चुनाव भले न जीत पाए, पर भाजपा-सपा जैसे दलों के साथ जुड़कर किसी भी दल का लगभग एक दर्जन सीटों के जीत-हार का समीकरण बना-बिगाड़ सकते हैं। जाहिर है कि इन सामाजिक समूहों के रासायनिक समीकरण चुनावी नतीजे को भी अवश्य प्रभावित करेंगे।
बसपा अभी तक इस मायने में अपवाद रही है। बसपा से जुड़े नेता भले दल छोड़कर किसी दल में शामिल हो जाएं, पर आमतौर बसपा के काडर पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। मान्यवर कांशीराम और बहन मायावती ने जिस करीने से अपने ‘काडर’ को तैयार किया है, वे बहुत हद तक बसपा के हाथी का साथ नहीं छोड़ते हैं।
फिलहाल बसपा का अपना वोटर चुप है। शायद बहन मायावती की दूसरे दलों के नेताओं की तुलना में राजनीतिक निष्क्रियता की वजह से। पर बसपा से इस राजनीतिक समूह का मोहभंग की स्थिति अभी व्यापक पैमाने पर नहीं दिख रही है। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभार्थी यह तबका जरूर है। पर यह उसके वोट के राजनीतिक रुझानों को भी तय करेगा-ऐसा दावा कोई दल नहीं कर सकता।
दरअसल, पिछले लोकसभा चुनावों में एक साथ मिलकर लड़ी सपा भी नहीं। यह प्रतिबद्ध और निर्णायक ‘वोट बैंक’ है। इसे नजरअंदाज करना किसी भी दल के लिए खतरनाक हो सकता है। राजनीतिक रूप से जागरूक इन सामाजिक समूहों को भी तय करना है कि वे किसे सत्ता का ताज पहनाते हैं और किसे सत्ता से बेदखल करते हैं।
आखिर क्या समीकरण रहा है इस जमीन पर
नब्बे के दशक के रामजन्म भूमि आंदोलन को छोड़ दें, तो पूर्वी उत्तर प्रदेश का इलाका भाजपा के सामाजिक समीकरण के लिहाज से कभी मुफीद नहीं रहा है। सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने के बाद ही पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामाजिक समीकरण पर मजबूत पकड़ कायम हुई है।
सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी के लिए सन 2019 के लोकसभा चुनावों के वक्त, सपा-बसपा के मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद जो समीकरण बना था, वह अब तक बरकरार है अथवा उसमें दरार पड़ी है?
दरअसल, भाजपा के सामने मुसीबत यह है कि वह हमेशा उन्मादी माहौल और उत्साही कार्यकर्ताओं के बूते ही चुनाव लड़ती और जीतती रही है। इस बार फर्क यह दिख रहा है भाजपा के कार्यकर्ताओं में उदासीनता है। यह उदासीनता भाजपा को लेकर उतना नहीं है, जितना योगी आदित्यनाथ की कार्य पद्धति को लेकर है। भाजपा कार्यकर्ताओं से बातचीत में यह बात सामने आती है कि सत्ता में होने के बावजूद कार्यकर्ताओं के छोटे-मोटे जरूरी काम भी नहीं हो पा रहे हैं। योगी जी के मिलने-जुलने के तौर तरीके से भी पार्टी के बड़े नेताओं में नाराजगी है।
भाजपा के लिए इस चुनौती पूर्ण चुनावी माहौल में सरकार के मुखिया की वजह से कार्यकर्ताओं की उदासीनता और उपेक्षा और बढ़ती दूरी, कही भारी न पड़े। यह योगी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसी स्थिति में भाजपा का मुकाबला पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा के उस उत्साही हुजूम से है- जो अभी से मानकर चल रहे हैं कि उनकी सरकर बनने वाली है। बस चुनावी नतीजे घोषित होने की देरी है। बसपा का ‘काडर’ फिलहाल चुप है।
क्या है कांग्रेस की स्थिति?
कांग्रेस के पास अभी कोई राजनीतिक पूंजी तैयार नहीं हो पाई है। बड़े करीने से सहेज कर एक अरसे तक बची राजनीतिक पूंजी नब्बे के दशक से ही खत्म होना शुरू हुई। अब तक तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी के राजनीतिक जमा खाते में रूठी लक्ष्मी की वापसी संभव नहीं हो पाई है। इस वजह से कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तमाम वादों के बावजूद लोगों को भरोसा नहीं जीत पा रही हैं।
एक वजह यह भी है कि पिछले कई चुनावों के रुझानों के अध्ययन से एक बात साफ है कि जब सत्ता के दावेदार दलों और उनके सहयोगियों की स्थिति आमने-सामने बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है, तो मतदाता अब किसी दल अथवा व्यक्ति को उपकृत करने के लिए अब वोट नहीं करते हैं। अब वह पीढ़ी भी लगभग लुप्तप्राय हो गई है- जो यह दावा करते थे कि उनका परिवार पुराना कांग्रेसी है।
वे कांग्रेस के अलावा किसी अन्य पार्टी को वोट भी नहीं करते थे। बसपा-सपा से समझौता कर चुनाव लड़ने की वजह से भी कांग्रेस की राजनीतिक पूंजी चुनाव दर चुनाव सूखती गई। अब उसे पुनः प्राप्त करना, तेजी से ध्रुवीकृत होते चुनाव के वक्त काफी मुश्किल है।
फिलहाल सभी राजनीतिक दल अपने माकूल मुद्दे को लेकर अपनी बिसात बिछाना शुरू कर चुके हैं। अहम सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश की मौजूदा हुकुमत से लोग इस कदर खफा हैं कि इस सरकार के किए कारनामे का बदला लेने के लिए विद्रोह पर आमादा हैं? क्या हाल-फिलहाल कोई ऐसी घटना घटी , जिसकी वजह से ऐसी स्थिति पैदा हुई है? क्या सरकार के सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के वादे के बावजूद प्रदेश में ऐसी विषम परिस्थिति पैदा हो चुकी है कि आमजन के लिए इस सरकार से मुक्ति के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है?
इस बाबत क्या आमजन राजनीतिक दलों पर दबाव बनाने की स्थिति में है कि इस सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए चाहे कालाचोर से भी समझौता करने की जरूरत पड़े, तो करना चाहिए? क्या जनता के सामने सत्ता के मौजूदा दावेदारों में से कोई बेहतर विकल्प मौजूद है?
इन सवालों के अलावा क्या सत्ता की प्रतीक जातियों के वर्चस्व के सामने उप जातीय चेतना सम्पन्न जातियों के वजूद का भी इस चुनाव में कोई मतलब है? सवाल हिंदुत्व और विकास के दायरे में धार्मिक गोलबंदी और जातीय जकड़बंदी के जाल को बुनने और छिन- भिन्न करने का भी है। यही वे मुद्दे हैं, जो फिलहाल चर्चा में हैं और इसके इर्द गिर्द ही चुनावी बिसात भी बिछती दिख रही है।
इन सवालों के अलावा किस विधानसभा क्षेत्र से किस दल का कौन उमीदवार चुनाव लड़ रहा है, यह भी चुनावी नतीजे को प्रभावित करेगा।। सत्ताधारी दल भाजपा के लगभग नब्बे फीसद विधायकों के टिकट बदलने की मांग स्थानीय स्तर से की जा रही है। पर सवाल है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों एक झटके में टिकट काटना इतना आसान है?
कोरोना काल के बाद तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए प्रधानमंत्री के नेतृत्व और योगी सरकार के कामकाज के लिहाज से भी सन् 2024 के चुनावों के पहले सन 2022 के उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण है। राजनीतिक लिहाज से रोचक और निर्णायक भी।
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