Home देश-दुनिया आश्रम में रहने वालों को माता-पिता के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते : उच्च न्यायालय

आश्रम में रहने वालों को माता-पिता के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते : उच्च न्यायालय

नई दिल्ली, 21 अप्रैल (ऐजेंसी/अशोक एक्सप्रेस)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि वह रोहिणी आश्रम में ‘‘स्तब्ध करने वाली’’ परिस्थितियों में रह रहीं महिलाओं को अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, लेकिन किसी भी संस्थान को इस तरह संचालन का का लाइसेंस नहीं है जिससे आश्रम में रहने वाले लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता हो।

स्वयंभू आध्यात्मिक गुरु वीरेंद्र देव दीक्षित द्वारा स्थापित आध्यात्मिक विद्यालय में मौजूदा हालात से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वह दिल्ली सरकार को संस्थान के प्रबंधन को अपने हाथ में लेने का निर्देश देना चाहती है। पीठ ने सरकारी वकील से इस संबंध में निर्देश लेने को कहा।

पीठ में न्यायमूर्ति नवीन चावला भी थे। पीठ ने भी कहा कि आश्रम एक ‘‘बाबा’’ द्वारा चलाया जाता है, जिसके खिलाफ केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने बलात्कार के अपराध के लिए आरोपपत्र दायर किया है और वह अब फरार है।

पीठ ने इस मामले पर पहले की एक रिपोर्ट का जिक्र किया जिसमें संस्थान में ‘‘स्तब्ध करने वाली स्थिति’’ का खुलासा किया गया था और दावा किया गया था कि आश्रम की महिलाएं ‘‘जेल जैसी परिस्थितियों’’ में रह रही हैं और वहां शौचालय में दरवाजे तक नहीं हैं। अदालत ने सीबीआई के वकील से मामले में जांच पर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने को भी कहा।

अदालत ने कहा, ‘‘हम इसे कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि कोई व्यक्ति कैसे होशोहवाश में इन परिस्थितियों में रहेगा? क्या हम इसके लिए अपनी आंखें बंद कर सकते हैं? इसका वित्तपोषण कौन कर रहा है? कौन प्रबंध कर रहा है? यह चौंकाने वाला है कि राजधानी में ऐसा हो रहा है… हम नहीं चाहते कि अध्यात्म की आड़ में अमानवीय स्थिति बनी रहे।’’

अदालत ने कहा कि वह यह प्रस्ताव नहीं दे रही है कि आश्रम को बंद कर दिया जाना चाहिए, लेकिन इसे ऐसे तरीके से चलाना है जो आश्रमवासियों की निजता के अधिकारों के अनुरूप हो और यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य की है कि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को रोका जाए है और इसका निवारण किया जाए।

अदालत ने कहा, ‘‘हम किसी को उनके माता-पिता के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, लेकिन वे इस बात पर जोर नहीं दे सकते कि संस्थान को गुप्त तरीके से चलाया जाए। हम यह नहीं कह रहे हैं कि संस्थान को बंद कर दें (लेकिन) एक निगरानी वाली नजर होनी चाहिए।’’

अदालत ने कहा, ‘‘हम एक पल के लिए भी यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि प्रतिवादी संस्थान और उसके निवासियों को अपनी आध्यात्मिक और धार्मिक मान्यताओं का दावा नहीं करना चाहिए… जब तक कि वे किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन नहीं करते हैं।’’

संस्था के वकील ने दिल्ली सरकार द्वारा आश्रम के अधिग्रहण का कड़ा विरोध किया और कहा कि संविधान के तहत उनके अधिकारों की रक्षा की गई है। उन्होंने अदालत को बताया, ‘‘किसी भी अल्पसंख्यक संस्थान को अपने मामलों का संचालन करने के लिए ऐसी संस्था होने के कारण लाइसेंस नहीं मिल जाता है कि व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन हो… अगर दिल्ली सरकार अपने अधीन लेकर एक प्रशासक की नियुक्ति करे तो भी आश्रम वासियों के धार्मिक और आध्यात्मिक अधिकारों के इस्तेमाल के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।’’ वकील ने यह भी कहा कि किसी भी यौन दुराचार के संबंध में आश्रम वासियों की ओर से एक भी शिकायत नहीं मिली है।

इस सप्ताह की शुरुआत में अदालत ने आश्रम से कारण बताने के लिए कहा था कि इसे दिल्ली सरकार द्वारा अपने हाथ में क्यों नहीं लिया जाना चाहिए और कहा कि यह स्वीकार करना मुश्किल है कि आश्रम के लोग अपनी मर्जी से वहां रह रहे हैं।

दिसंबर 2017 में, गैर सरकारी संगठन ‘फाउंडेशन फॉर सोशल एम्पॉवरमेंट’ की एक याचिका पर उच्च न्यायालय ने सीबीआई से आश्रम के संस्थापक वीरेंद्र देव दीक्षित का पता लगाने के लिए कहा था। याचिका में आश्रम के उन दावों पर संदेह जताया गया था कि वहां महिलाओं को अवैध रूप से बंधक बनाकर नहीं रखा गया है।

इससे पहले, अदालत ने सीबीआई को आश्रम में लड़कियों और महिलाओं को कथित रूप से अवैध तरीके से रोककर रखे जाने के मामले की जांच करने का निर्देश दिया था। याचिका में दावा किया गया था कि महिलाओं और लड़कियों को कांटेदार तारों से घिरे ‘‘किले’ में धातु के दरवाजों के पीछे ‘‘जानवरों जैसी’’ स्थिति में रखा गया था।

याचिकाकर्ता एनजीओ ने दावा किया था कि कई नाबालिगों और महिलाओं को कथित तौर पर ‘‘आध्यात्मिक विश्वविद्यालय’’ में अवैध रूप से बंधक बनाकर रखा गया था और उन्हें अपने माता-पिता से मिलने की अनुमति नहीं थी। इस पर संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने संस्थान के परिसर का निरीक्षण करने के लिए तुरंत एक समिति गठित की थी, जिसमें वकील और दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख स्वाति मालीवाल शामिल थीं।

समिति में वकील अजय वर्मा और नंदिता राव भी थे। समिति ने तब 100 से अधिक लड़कियों और महिलाओं की ‘‘भयावह’’ स्थिति का विवरण देते हुए एक रिपोर्ट दी, जिन्हें ‘‘पशु जैसी परिस्थितियों में’’ रखा गया था और वहां उनके नहाने के लिए भी कोई निजता नहीं थी।’’ मामले की अगली सुनवाई 25 अप्रैल को होगी।

 

 

 

 

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