स्वस्थ मन से स्वस्थ तन
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
पुरानी कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है, पर यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर का निर्माण संभव है। तन और मन का संबंध पारस्परिक है। दानों की निर्भरता एक -दूसरे से जुड़ी है। अतः स्वास्थ्य एक समग्र तत्व है। इसकी प्राप्ति के लिए हमें समग्रता में सोचना चाहिए।
तन और मन का गहरा संबंध है। एक स्वस्थ तो दूसरा भी स्वस्थ। एक बीमार, तो दूसरा भी बीमार। दोनों की स्वस्थता एक दूसरे पर निर्भर है। स्थानांग सूत्र में यह बात प्रमुखता से कही गई है कि विचारों और भावनाओं से मानव का स्वास्थ्य बहुत अधिक प्रभावित होता है। अच्छे स्वास्थ्य का अर्थ सिर्फ अच्छा भोजन और एक नियमित दिनचर्या अपनाना भर नहीं है। स्वस्थ मनुष्य वह है जो अपनी शुद्ध प्रकृति में स्थिर होता है। यानी स्वस्थ वह है जो शरीर से ही नहीं, विचारों से भी स्वस्थ है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है – यह अधूरा सत्य है। इसके साथ यह भी जोड़ जाना चाहिए, स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर का निर्माण होता है।
वैसे तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का अद्भुत विकास हुआ है। उसकी सफलताओं और उपलब्धियों पर सभी दांतों तले अंगुलियां दबाते हैं, पर इसके बावजूद दुनिया में बीमार लोगों की कोई कमी नहीं दिखती। नये से नये रोग भी जन्म लेते दिखाई देते हैं। असल में जब तक मानसिक विचारों और भावनाओं में संतुलन नहीं कायम होता और शांति का वातावरण नहीं बनता, तब तक स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। सच तो यह है कि रोग से भी अधिक हम रोग की चिंता से रोगी और दुर्बल बनते हैं। इसलिए जरूरी यह है कि जब भी शरीर पर रोग का आक्रमण हो, हमें विचारों के स्वास्थ्य और उनके संतुलन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
चिंता और भय की तरह क्रोध का भावावेश भी स्वास्थ्य का शत्रु है। दो दिन के ज्वर से जितनी शक्ति नष्ट होती है, तीव्र क्रोध के दो क्षण में उतनी शक्ति नष्ट होती है। क्रोध से रक्तचाप की वृद्धि के साथ हृदय रोग का खतरा भी होता है। इसी तरह भय और भावना से भी स्वास्थ्य बहुत प्रभावित होता है। उसके प्रभाव से अनेक व्यक्ति पागल और रोगी तक बन जाते हैं। स्वास्थ्य पर विचारों के इतने गहरे प्रभाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि स्वस्थ जीवन के लिए इलाज और दवा के साथ-साथ विचारों के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए, तभी आप खुद को स्वस्थ रख सकते हैं।
इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं। एक बार अमेरिका के कृषि मंत्री एंडरसन को दिल की बीमारी हो गयी। कई दिनों की चिकित्सा के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। एक दिन अस्पताल में ही उन्होंने एक पुस्तक पढ़ी जिसमें लिखा था- दिल की बीमारी को दिमाग पर हावी नहीं होने देना चाहिए। यह वाक्य उनके जीवन का मंत्र बन गया। उसी क्षण उन्होंने दिमाग से रोग की चिंता को दूर कर लिया। परिणाम यह निकला कि थोड़े ही समय में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गये। मन से अच्छा महसूस करते हुए रोग की चिकित्सा करने के इस उपाय को फेथ – हीलिंग कहते हैं। इस तरह का इलाज आस्था और भावना द्वारा की जानेवाली चिकित्सा का ही रूप है। भौतिक चिकित्सा का उपयोग करते हुए भी हमें आध्यात्मिक चिकित्सा का प्रयोग करना चाहिए। जैन परंपरा में ऐसे अनेक मुनियों के उदाहरण हैं, जिनके आधार पर आस्था और भावना द्वारा चिकित्सा की विधि का और अधिक विकास हो सकता है।
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