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लेख - January 30, 2023

यात्रा कामयाब मगर संगठन भी मजबूत करना होगा

-शकील अख्तर-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

राहुल गांधी की यह सोच है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पार्टी में हर जगह होना चाहिए। उन्होंने एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में भी चुनाव करवा लिए। और अभी पार्टी अध्यक्ष का भी। आदर्श और सिद्धांत के रूप में यह बात अच्छी है। मगर इसका पार्टी की मजबूती में क्या फायदा है यह बहसतलब है। भाजपा ने बिना किसी चुनाव के अभी फिर नड्डा को एक टर्म और दे दिया। बेट्समैन ने खुद को साबित कर दिया। एक शानदार विनिंग स्कोर बनाकर टीम को दे दिया। अब रणनीति टीम को बनाना है। कप्तान खड़गे जी को। कैसे दूसरी टीम को आउट करना है। कैसे फार्म में आए इस बेट्समैन का उपयोग जीत के लिए करना है।

इस साल होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले राहुल की यह यात्रा कांग्रेस के लिए वरदान साबित हो सकती है। मगर उसके लिए कांग्रेस को संगठन मजबूत करने का कठिन काम करना होगा। सिर्फ एडजस्ट होने के लिए हर जगह गणेश परिक्रमा करने वाले नेताओं को दूर करके वास्तव में काम करने वाले नेताओं, कार्यकर्ताओं को खुद चुनने का। अंग्रेजी में कहते हैं-हेंड पिक्ड। जो इन्दिरा गांधी करती थीं। नेताओं की खोज। जहां चमक दिख जाती थी उठा लाती थीं। आज के यह नेता अशोक गहलोत, गुलाम नबी आजाद, तारीक अनवर सब इन्दिरा गांधी के उठाए और बनाए हुए थे।

गहलोत को राजस्थान से उस समय अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जब राजस्थान में केवल ब्राह्मण, जाट, राजपूत नेता ही हुआ करते थे। लेकिन बिना किसी राजनीतिक बेक ग्राउन्ड के एक बहुत छोटे से समुदाय (माली समाज) से आने वाले गहलोत को उन्होंने आगे बढ़ाया। इसी तरह जम्मू-कश्मीर में राजनीति में आते थे कश्मीर के और जम्मू के लोग। डोडा दोनों जगह से बहुत दूर पड़ता था। पहाड़ी और पिछड़ा इलाका। आजाद वहीं के थे। उन्हें मुफ्ती मोहम्मद सईद जो उस समय जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे दिल्ली लेकर इन्दिरा जी के पास आए थे। और इन्दिरा जी ने फिर आजाद को आगे बढ़ाया। दूसरे राज्य महाराष्ट्र से सांसद बनवाया।

जम्मू-कश्मीर से तो बहुत बाद में आजाद सांसद बने हैं। सबसे पहली बार जम्मू-कश्मीर से फारुख अब्दुल्ला की मदद से 1996 में राज्यसभा पहुंचे थे। ऐसे ही तारीक अनवर को बिहार से राष्ट्रीय राजनीति में लाईं थी। बहुत नाम हैं। अर्जुन सिंह को 1980 में मध्य प्रदेश के कई वरिष्ठ नेताओं पर तरजीह देकर मुख्यमंत्री बना दिया था। तो इन्दिरा गांधी लोगों को चुनती थीं। बाद में यह प्रक्रिया बंद हो गई। जो नेताओं के आसपास घूमता है उसी को मौका दे दिया जाता है।

इस पर सबसे अच्छी बात एक बार फारुक अब्दुल्ला ने कही थी। 1996 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नजदीक चक्कर लगाने वालों को पद देने पर उन्होंने हल्की सी गाली देकर कहा था कि… रात को गुडनाइट कहकर सुलाकर जाते हैं। सुबह गुड मार्निंग कहकर उठाते हैं। चौबीस घंटे तो इन्हीं कमबख्तों (यह गाली में नहीं आता) की शकल देखते हैं। तो जब देने का वक्त आता है तो यही नालायक याद आते हैं।

खैर तो खड़गेजी को इससे बचना होगा। अभी रायपुर में 24 से 26 फरवरी तक कांग्रेस का महाधिवेशन (प्लेनरी) है। जहां उनके अध्यक्ष चुने जाने पर एआईसीसी के मेम्बर मुहर लगाएंगे। ताजपोशी होगी। सीडब्ल्यूसी के सदस्यों का चुनाव भी हो सकता है और अगर अध्यक्ष को अधिकार दे दिए जाएं तो वे सारे सदस्यों को मनानीत भी कर सकते हैं। उसके बाद अपनी पूरी नई टीम बनाना। महासचिव, सचिव, राज्यों के अध्यक्ष सब बनाना है। कैसे एक नया और काम करती कांग्रेस का रूप दे पाएंगे इस पर ही उनका और लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस का भविष्य निर्भर करता है।

रायपुर से पहले श्री खड़गे को वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठकर यह तय करना है कि रायपुर में सीडब्ल्यूसी के 12 सदस्यों का चुनाव होगा या नहीं। कांग्रेस में ऐसे कम ही मौके आए हैं जब सीडबल्यूसी के सदस्यों का चुनाव हुआ है। सीडब्ल्यूसी( कांग्रेस वर्किंग कमेटी) कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई है। इसमें पार्टी अध्यक्ष सहित 23 सदस्य होते हैं। जिनमें से 12 निर्वाचित के लिए पिछले कई सालों में तब ही चुनाव हुए हैं जब पार्टी अध्यक्ष परिवार के बाहर का था। 1992 में नरसिंहा राव अध्यक्ष थे तब और 1997 में जब सीताराम केसरी अध्यक्ष थे तब। लेकिन दोनों बार चुनावों से पार्टी मजबूत नहीं हुई बल्कि कमजोर ही हुई।

राहुल गांधी की यह सोच है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पार्टी में हर जगह होना चाहिए। उन्होंने एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में भी चुनाव करवा लिए। और अभी पार्टी अध्यक्ष का भी। आदर्श और सिद्धांत के रूप में यह बात अच्छी है। मगर इसका पार्टी की मजबूती में क्या फायदा है यह बहसतलब है। भाजपा ने बिना किसी चुनाव के अभी फिर नड्डा को एक टर्म और दे दिया। और उनकी पार्टी इससे कहीं भी कमजोर नहीं हुई। और किसी पार्टी में भी आन्तरिक चुनाव का कोई रिकार्ड नहीं है। और न कोई यह रिकार्ड है कि चुनाव करवाने से कोई पार्टी मजबूत हुई है और चुनाव न करवा कर कोई कमजोर।

अब आगे खड़गे और बाकी उन लोगों को देखना है जो जवाबदेह हैं। राहुल अब जवाबदेह नहीं हैं। फिलहाल तो वे मात्र एक सांसद हैं। और यात्रा करके जो निश्चित ही रूप से अभूतपूर्व सफल हुई है, वे एक अलग दार्शनिक और आदर्शवादी स्टेज पर पहुंच गए हैं। व्यवहारिक राजनीति उन्होंने पहले भी नहीं की और अब उनसे इसकी उम्मीद कम ही है।

इसलिए पार्टी को अब उनका सही उपयोग करना है। और उनके द्वारा यात्रा से बनाए सकारात्मक माहौल को व्यवहारिक लाभ तक ले जाना है। प्रियंका गांधी जिन्हें केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित कर रखा था उनका इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में पूरा उपयोग करना होगा। उनमें करिश्माई शक्ति है। अभी तक पार्टी उसका सही इस्तेमाल नहीं कर पाई है। उनके अलावा राहुल ने तो खुद को यात्रा के जरिए साबित कर ही दिया है। उनकी भूमिका विधानसभा और फिर लोकसभा में मेन स्ट्राइकर की होगी। लेकिन सहयोगी अच्छे चाहिए होंगे। राहुल के आसपास के अभी के लोग सिर्फ राज्यसभा और दूसरे संगठन के पदों के लिए ही अपनी योग्यता दिखाते रहे हैं। चुनावों में जो असली परीक्षा है वे लगातार फेल हुए हैं। पहले तो खुद राहुल को उन पर पुर्ननजर डाल कर अपने नजदीक से हटाना होगा। फिर अध्यक्ष को उन्हें पदों से। राहुल को यह याद रखना चाहिए कि उनकी यात्रा में उन्हें कई सालों से घेरे रहे लोगों का कोई योगदान नहीं है। बल्कि दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश जैसे घेरे के बाहर के नेताओं की मेहनत और संकल्पना है।

कांग्रेस में ऐसे बहुत सारे नेता हैं और कार्यकर्ता तो असंख्य हैं जिनमें बड़ी प्रतिभा और गहन प्रतिबद्धता है। इन्हें सामने लाने का काम करना होगा। और एक झटके से बोझ बने नेताओं को दूर करना होगा। बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा। कांग्रेस बहुत बड़ी-बड़ी कमेटियां बनाती है। उसमें भी सबको एडजस्ट किया जाता है। उस एडजस्ट कल्चर को छोड़कर केवल दो या अधिकतम तीन लोगों की एक कमेटी बनाकर पिछले दो लोकसभा चुनावों के हार के चार बड़े कारण कागज पर लिखने होंगे। और यहीं से उसके आधार पर जीत के चार उपाय की रूपरेखा बनाकर काम शुरू करना होगा। राहुल ने प्लेटफार्म दे दिया है। अब पार्टी पर है कि इसका उपयोग कैसे करती है।

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