हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट आदेश दें-सलाह नहीं
-सनत कुमार जैन-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
संविधान एवं विधि विशेषज्ञ न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति से हतप्रभ हैं। हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने वीडियो गेम पर प्रतिबंध लगाने की याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर दिया। मद्रास हाईकोर्ट ने माना कि वीडियो गेम की लत से वच्चे एवं युवा शिकार हो रहे हैं। प्रतिबंध लगाना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। कोर्ट ने सरकार से सम्पर्क करने की बात कहकर याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर दिया। इसी तरह के सैकड़ों मामलों मे विभिन्न हाईकोर्ट एवं सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों ने याचिकाओं में आदेश देने के स्थान पर बिना निर्णय याचिकाओं का निराकरण निर्देश के साथ कर दिया।
जनहित याचिकाओं में सुनवाई के दौरान कास्ट लगाकर याचिकाओं को खारिज करने का निर्णय बड़े पैमाने पर देश की विभिन्न हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में हो रहा है। जनहित याचिका के माध्यम से अब ना अपना भी आम आदमी के बस में नहीं रहा। आम जनता दो पाटों के बीच फंसकर पिसने के लिए मजबूर है। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट एवं अधिनस्थ न्यायालयों में जो मुकदमें और याचिकायें दाखिल होती हैं। उसमें 70 फीसदी मामलों में सरकारें पक्षकार होती हैं। सरकारों को जनहित में जो निर्णय करने चाहिए। वह राजनैतिक एवं स्वयं के हितों को देखते निर्णय नहीं लेते। निर्णय वर्षों तक लंबित रहतें हैं। सरकार द्वारा जो कानून और नियम बनाये जाते हैं। उनका मनमाना उपयोग शासन और प्रशासन के पदों पर बैठे हुए लोग करते हैं। कानून एवं नियमों का एक वर्ग विशेष को फायदा पंहुचाने में किया जा रहा है। गरीब एवं सामान्य आम जनता के लिए अलग कानून एवं का कारपोरेट के लिए अलग कानून बन रहे हैं। पिछले 20 वर्षों में टेक्स एवं निजी हितों को प्रभावित करने वाले सैकड़ों नए कानून एवं हजारों नियम बने हैं। हर कानून एवं नियम का असर निजी जीवन में आम आदमी के आर्थिक एवं निजी हितों पर पड़ रहा है। सरकाररें,असंवेदनशील हैं। आम जनता की जब सरकारों एवं कार्यपालिका की नौकरशाही में सुनवाई नहीं होती है। तभी जनहित याचिकाओं एवं अन्य याचिकाओं के माध्यम से नागरिक हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट पंहुच कर न्याय की गुहार लगाते हैं। पिछले वर्षों में हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं पर कास्ट लगाकर खारिज किए जाने से आम नागरिक और विधि विशेषज्ञ वकीलों की जमात हतप्रभ है। इसी तरह हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान और याचिकाओं के निराकरण में आदेश के स्थान पर सलाह के रुप में मामलों का निराकरण कर दिया जाता है। जिसके कारण पिछले वर्षों में केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट की सलाह एवं निर्णयों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
पिछले वर्षों में कानून एवं नियमों का निर्धारण अध्यादेश एवं प्रशासनिक आदेशों के माध्यम से हो रहा है। सरकारे मनमाने नियम बना रहीं हैं। जिसके कारण आम आदमी की निजी स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, पुलिस प्रताणना, जांच एजेंसियो की कार्यप्रणाली को लेकर जनता की नाराजगी बढती जा रही है। जेल में वर्षों से बिना चार्जशीट के हजारों लोग बंद हैं। नियमों एवं कानूनों का बेजा इस्तेमाल हो रहा है। इसके बाद भी न्यायपालिका की अनदेखी से जनता मे नाराजी बढ़ रही है। विधि विशेषज्ञों एवं आम जनता अभी तक यह मानकर चलती है कि विधायिका एवं कार्यपालिका के निर्णयों से यदि कोई असहमत है। वह न्यायपालिका में जाकर निर्णय प्राप्त कर सकता है। केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों एवं नियमों की वैधानिकता देखने और उस पर निर्णय लेने का अधिकार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को ही है। आम जनता के मौलिक अधिकारों का यदि किसी भी नियम कानून अथवा प्रशासन द्वारा हनन किया जा रहा है ऐसे मामलों को सुनने एवम आदेश देने की शक्तियां
संविधान ने न्यायपालिका को सर्वोच्चता के साथ प्रदान की है। कानून बनाने का अधिकार विधायिका को प्राप्त है। कानून एवं नियमों के अनुसार शासन – प्रशासन चलाना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। यदि विधायिका एवं कार्यपालिका संविधान प्रदत्त आम आदमी के मौलिक अधिकारों को नियंत्रित करने अथवा उन्हें खत्म करने का कोई कार्य करती है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका के पास कानून एवं नियमों को निरस्त करने अथवा नया कानून बनाने का आदेश देने के संवैधानिक अधिकार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में निहित हैं। विधायिका एवं कार्यपालिका यदि जनहित के मामलों की अनदेखी कर रही है, या असंवेदनशील है। ऐसी स्थिति में हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट को आदेश देकर क्रियान्वय कराने की जिम्मेदारी संविधान ने न्यायपालिका को दी है। पिछले कुछ वर्षों में नागरिक अधिकारों और मौलिक अधिकारों का दमन बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। हाईकोर्ट एवं सुप्रीमकोर्ट सरकार के पक्ष को तरजीह देते हुए दिख रही है। इससे आम जनता के बीच न्यायपालिका को लेकर जो विश्वास था, वह शनै – शनै कम होता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट विभिन्न मामलों में कानून की समीक्षा करने अथवा जनहित के मुद्दों पर जिस तरह सरकार के ऊपर जवाबदेही बनाकर याचिकाओं का निराकरण कर रहे हैं उससे आम आदमी हतप्रभ है।वहीं वरिष्ठ विधि विशेषज्ञ भी इस हालात पर गहरी चिंता समय-समय पर व्यक्त कर चुके हैं। इस दिशा में न्यायपालिका को विशेष रुप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
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