Home लेख मोदी सरकार का पारदर्शी प्रशासन का संकल्प अब भी आधा-अधूरा ही है
लेख - July 7, 2021

मोदी सरकार का पारदर्शी प्रशासन का संकल्प अब भी आधा-अधूरा ही है

-ललित गर्ग-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश की सत्ता संभाले आठवां साल चल रहा हैं। बीते सात सालों में मोदी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया है। किस तरह से इस राजनीतिक इच्छाशक्ति वाली सरकार ने अपने फैसलों से राजनीति की दशा-दिशा बदली है, यह एक उदाहरण बना है। लेकिन प्रशासन को पारदर्शी, ईमानदार एवं कार्यकारी बनाने के मोदी सरकार के संकल्प अभी आधे-अधूरे ही पड़े हैं। जिसे गुड गवर्नेंस कहा जाता है, उसके लिए जरूरी है कि ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ पर चलने वाली सरकार अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही प्रशासन-व्यवस्था में बदलाव लाए।

मोदी सरकार ने प्रशासनिक सुधार के भी काम बड़े पैमाने पर किए हैं, उसका लाभ भी देश को दिख रहा है। प्रशासन को पारदर्शी बनाने के लिए हाल के वर्षों में भाजपा सरकार ने अनेक सार्थक कदम उठाये हैं। मोदी सरकार ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि न तो भ्रष्टाचार को बर्दाश्त किया जायेगा और न ही भ्रष्ट अधिकारियों को बख्शा जायेगा। बात केवल भ्रष्टाचार की नहीं है, सरकारी कामों में बिचैलियों एवं दलाल व्यवस्था कायम रहने की भी है। बड़ी परेशानी का सबब है इस व्यवस्था का कायम रहना और इसका वर्चस्व बढ़ना, सरकारी कर्मचारियों के द्वारा आम-जनता के द्वारा सीधे काम करवाने के लिये तत्पर होने पर उनके काम लटकाना, बार-बार चक्कर लगावना, तरह-तरह के डॉक्यूमेंट की मांग करना आदि ऐसी समस्याएं मोदी सरकार में पहले से ज्यादा बढ़ी हैं। नेताओं से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों तक यह स्वर साफ सुनने को मिल रहा है कि बिना धन के पहिये की गाड़ी आगे नहीं सरकती, सरकारें कितने ही आदर्शवाद के नारे लगायें, कितनी ही कड़ी कार्रवाई का भय दिखायें- भ्रष्ट प्रशासन कायम रहेगा। ये सारे मामले न सिर्फ गंभीर हैं, बल्कि पूरी व्यवस्था को खोखला करने वाले हैं।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की साल 2018 की करप्शन इंडेक्स रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के मामले में भारत की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी भाजपा सरकार अपने पिछले कार्यकाल से ही सरकारी दफ्तरों के कामकाज में सुधार लाने के प्रयास करती रही है। इसके लिए उसने कई कदम भी उठाए हैं, जिसमें हर कर्मचारी के समय पर दफ्तरों में पहुंचने और उनके काम करने पर निगरानी का तंत्र विकसित किया गया। उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की गई। इन कारणों से थोड़ा-बहुत सुधार हुआ भी है, तो वह बहुत ऊंचे स्तर पर, लेकिन कुल मिलाकर इतना अप्रभावी है कि उसे ऊंट के मुंह में जीरा से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। कठोर नियंत्रण एवं नीतियों के बावजूद प्रशासनिक कार्यों में भ्रष्टाचार व्याप्त होना विडम्बनापूर्ण है, जिससे आम नागरिकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, रिश्वतखोरी कायम है, दलालों का बोलबाल है। सभी सरकारी प्रक्रियाएं जटिल हैं, डीडीए में फ्लैट को फ्रीहोल्ड कराने की प्रक्रिया को ही ले लीजिये, यह इतनी जटिल एवं असंभव सरीखी है कि बिना दलालों के यह संभव नहीं हो पाती। मेरे मित्र ने साहस करके बिना दलालों के खुद ही फ्रीहोल्ड कराने की ठानी, लेकिन दो साल से अधिक समय बीत जाने एवं बीसों चक्कर लगाने, समस्त औपचारिकताएं पूरी करने के बावजूद उनका फ्लैट फ्रीहोल्ड नहीं हो पाया है, कैसे आम नागरिक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के न खाऊंगा और न खाने दूंगा एवं प्रशासन में दलाली एवं एजेंट प्रथा के समाप्त होने की घोषणाओं पर विश्वास करे?

पुलिस हो या अधिकारी आज भी नोट जुगाड़ने की कोशिश में रहते हैं, जनता की सेवा एवं सहयोग के लिये नहीं। जनता परेशान होगी तभी तो रिश्वत देगी, यह भ्रष्टाचार शासन एवं प्रशासन की जड़ों में बैठा हुआ है, इन विकट एवं विकराल स्थितियों में एक ही पंक्ति का स्मरण बार-बार होता है, “घर-घर में है रावण बैठा इतने राम कहां से लाऊं”। भ्रष्टाचार, बेईमानी और अफसरशाही इतनी हावी हो गयी है कि सांस लेना भी दूभर हो गया है। राशन कार्ड बनवाना हो, ड्राइविंग लाइसैंस बनवाना हो, डीडीए में मकानध्फ्लैट को फ्रीहोल्ड करवाना हो, चालान जमा करना हो, स्कूल में प्रवेश लेना, सरकारी अस्पताल में इलाज कराना हो और यहाँ तक कि सांस लेना हो तो उसके लिए भी रिश्वत की जरूरत पड़ती है। कोरोना महामारी की संकटकालीन स्थितियों में भी यह भ्रष्टाचार बढ़-चढ़ कर सामने आया है। समस्याओं से जूझते हुए कब तक हम लोग नरेंद्र मोदी को ढूंढ़ते फिरेंगे? कब तब इन नेताओं की भ्रष्टाचारमुक्त त्वरित प्रशासनिक कार्रवाई की घोषणाएं केवल नारों तक सीमित रहेगी? आखिर कब प्रशासन नींद से जागेंगे? नेताओं के संकल्पों को आकार देने की कुछ जिम्मेदारी तो प्रशासनिक कर्मचारियों एवं अधिकारियों की भी है।

1985 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने नौकरशाहों पर नकेल कसने की खुलेआम घोषणा की थी। नरेन्द्र मोदी ने हालांकि बारह साल तक सफलतापूर्वक गुजरात का प्रशासन नौकरशाहों की ही मदद से चलाया था, किंतु लगता है कि इस संतोषजनक अनुभव के बावजूद उनके मन के किसी कोने में कहीं कोई छोटा-सा ही सही, लेकिन संदेह था। इसलिए प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने घोषणा की कि ‘अब मेरा क्या, मुझे क्या’ नहीं चलेगा। उनके प्रभावी शासन की चर्चाएं बहुत दूर-दूर तक हैं यह अच्छी बात है लेकिन इन चर्चाओं के बीच हमारे देश का भ्रष्टाचार एवं सरकारी कामों के लेट लतीफ, काम लटकाने की मानसिकता भी दुनिया में चर्चित है, इसे तो अच्छा नहीं कहा जा सकता। इसलिए हमें जरूरत है इसको रोकने की। हमें यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफसोस भी होता है कि हमारे पास ईमानदारी नहीं है, राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, नैतिक मूल्य नहीं है, काम के प्रति जबावदेही नहीं है।

आज का काम कल पर टालने की मानसिकता एक आम आदमी को कितने सरकारी कार्यालयों के चक्कर कटवाती है, जगजाहिर है। राष्ट्र में जब राष्ट्रीय मूल्य कमजोर हो जाते हैं और सिर्फ निजी स्वार्थ और निजी हैसियत को ऊंचा करना ही महत्वपूर्ण हो जाता है तो वह राष्ट्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है और नकारों, भ्रष्टाचारियों का राष्ट्र बन जाता है। मोदी यदि वास्तविक रूप में प्रशासनिक सुधार चाहते हैं तो उसे समस्या के समाधान के लिये केवल पत्तों को सींचने से काम नहीं चलेगा, जड़ों को सींचना होगा। सत्ता पर कुछ अधिकारियों के कब्जे करने की प्रवृत्ति में बदलाव लाना होगा। प्रधानमंत्री ने संयुक्त सचिव स्तर तक के पदों पर कुछ विशिष्ट जनों की नियुक्ति करके इसकी शुरूआत की। हर बड़े बदलाव की तरह इसका भी नौकरशाही पर कब्जा करने वाली लाबी ने विरोध किया। प्रशासन की पूरी ताकत कुछ अफसरों में निहित होने के चलते भी प्रशासनिक सुधार का बड़ा काम नहीं हो पा रहा है। फैसलों पर नौकरशाही के प्रभावशाली होने का एक कारण तो कई बार मंत्रियों की अपने विभाग के बारे में ठीक जानकारी न होना भी है। लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि जो भी जनता से चुना जाता है वह सरकार चलाने के लिए मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के योग्य बन जाता है। कायदे में इसमें किसी तरह के बदलाव पर चर्चा करने के बजाय यह प्रयास किया जाना चाहिए कि जिसे जिस विभाग का मंत्री बनाया जाए, उसे उसके बारे में समय देकर प्रशिक्षित किया जाए। प्रशिक्षण केवल नौकरशाही से नहीं करवाया जाये बल्कि दक्ष एवं प्रशिक्षित विशेषज्ञों से करवाया जाये। इसी के साथ-साथ बड़ी जिम्मेदारी देते समय उस विधायक या सांसद की शैक्षणिक और दूसरी तरह की योग्यताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।

‘प्रशासनिक सुधार’ का अर्थ है कि प्रशासन में इस प्रकार के सुनियोजित परिवर्तन लाये जायें जिससे प्रशासनिक क्षमताओं में वृद्धि हो, किसी भी काम को करने की समयावधि हो, काम को अभी और इसी समय करने की मानसिकता हो, ऐसा होने से ही भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना सम्भव हो सकेगा। प्रशासनिक सुधार एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर नियोजित तरीके से विकास मार्ग पर बढ़ती है। प्रशासनिक अधिकारियों, कर्मचारियों को लोकसेवक कहा जाता है। उनकी जिम्मेदारी है कि वे आम नागरिकों से नजदीकी बनाए रखकर उनकी समस्याओं को सुनें, समझें और उनके समाधान का प्रयास करें। पर हकीकत यह है कि प्रशासनिक अधिकारियों और आम नागरिकों के बीच फासला इतना बढ़ता गया है कि कोई साधारण आदमी उनके सामने खड़े होकर डर से अपनी बात तक नहीं कह पाता। जबकि सरकार तक जनता के पहुंचने का सबसे सुगम साधन प्रशासनिक अधिकारी ही होते हैं। अधिकारियों के जरिए ही लोकतंत्र जमीन पर उतरता है।

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Check Also

सिख धर्म सिखाता है कि एक परिवार के रूप में मनुष्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं: अमेरिकी नेता

वाशिंगटन, 11 अप्रैल (ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस)। न्यूयॉर्क के एक प्रभावशाली नेता ने वैसाखी स…