भारत की चुनौती
-सिद्वार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
अमेरिका में 2020 के चुनाव के बाद भले ही राष्ट्रपति और सत्ता बदल गई, मगर कुछ नहीं बदला तो वह है अफगानिस्तान से तालिबान के खिलाफ संघर्ष खत्म करने और अमेरिका समेत नाटो देशों की सेनाओं की वापसी का निर्णय। 2001 से जारी तालिबान विरोधी जंग को खत्म करने और सेनाओं की वापसी का फैसला पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन का था। नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इसे बरकरार रखा और सेनाओं की वापसी हो गई। लगभग पूरी विदेशी सेना की वापसी हो गई है। हालांकि, सेनाओं की वापसी के साथ अमेरिका का तालिबान के खात्मे का मुद्दा अब कमजोर पड़ चुका है। धीरे-धीरे तालिबान अफगानिस्तान में वापस पैर पसारने लगा है। लगभग दो तिहाई हिस्से पर वापस कब्जा जमा लिया है। भारत के लिए अफगानिस्तान में इतिहास खुद को दोहराने के लिए तैयार है। भारत के लिए अफगानिस्तान में आशंकाएं उस समय से भी बदतर प्रतीत होती हैं, जब 1992 में वहां इसकी समर्थक सरकार गिर गई थी। तब तक सोवियत संघ, जिसके साथ भारत का गठबंधन था, विघटित हो गया था। भारत एक बार फिर वहां अलग-थलग है, क्योंकि उस क्षेत्र में इसके करीबी माने जाने वाले अमेरिका ने काबुल छोड़ दिया है। यही नहीं, अमेरिका ने अशरफ गनी सरकार को तालिबान के गंभीर खतरे के बीच छोड़ दिया है, और तालिबान का भारत से कभी बेहतर रिश्ता नहीं रहा। अगर भारत तालिबान के साथ देर से और संकोच के साथ बात कर भी रहा है, तो लगता है कि शायद वह कारगर नहीं हो रही, क्योंकि तालिबान का शीर्ष नेतृत्व, जिसका वास्तव में कूटनीतिक महत्व है, अपना वर्चस्व सुनिश्चित करने के लिए अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा करने में व्यस्त है, ताकि देश के भीतर या बाहर से उसे चुनौती न दी जा सके। तालिबान के नियंत्रण में अफगानिस्तान का कितना बड़ा इलाका है, यह अब मायने नहीं रखता। उन्होंने अमेरिकियों द्वारा खाली किए गए राजनीतिक और सैन्य शून्य को भर दिया है। उत्तरी अफगानिस्तान के बड़े इलाकों के साथ-साथ, जहां जातीय अल्पसंख्यक उज्बेक, हजारा और ताजिक रहते हैं, ताजिकिस्तान से लगती अंतरराष्ट्रीय सीमा तक अपना नियंत्रण स्थापित कर उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया है कि नॉर्दर्न एलायंस-जिसे भारत ने 2001 में समर्थन दिया था, जिसने अमेरिका के लिए जमीनी स्तर पर काफी लड़ाई लड़ी थी और जो काबुल से तालिबान को उखाड़ फेंकने के लिए पर्याप्त था-फिर से आकार न ले सके। भारत के लिए स्थिति बेहद प्रतिकूल है, जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रूस और और ईरान के विदेश मंत्रियों के साथ पिछले हफ्ते बातचीत करने के बाद हसूस किया। ये दोनों क्षेत्रीय शक्तियां, जो पहले अफगान संघर्ष पर भारत के करीब थीं, अब दूर हो गई हैं। ये दोनों नहीं चाहते कि अफगानिस्तान में किसी भी रूप में अमेरिकी मौजूदगी जारी रहे। भारत के लिए अगर कुछ सांत्वना की बात है, तो यह कि पाकिस्तान की स्थिति भी बहुत जटिल है। अफगानिस्तान में खुली छूट मिलने और काबुल में एक मित्र सरकार होने की पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी होगी। सत्ता पर काबिज हो जाने पर तालिबान उनके मित्र बने रहेंगे और वे डुरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करेंगे, यह देखा जाना बाकी है। फिलहाल पाकिस्तान शरणार्थियों की आमद की उम्मीद कर सकता है, जो पहले से ही अनुमानित 28 लाख है। इसके अलावा नशीले पदार्थ भी आएंगे। इसके साथ चरमपंथियों और सांप्रदायिक समूहों की गतिविधियां भी बढ़ेंगी। अफगान तालिबान और तहरीके तालिबान पाकिस्तान में वैचारिक समानता है। चीन भी इससे डरता है, इसलिए वह शिनझियांग में उइघुरों को कुचलने की कोशिश कर रहा है। पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानों से जो सद्भावना अर्जित की, वह तालिबान के सत्ता में आते ही खत्म हो जाएगी। अफगानिस्तान के राष्ट्र-निर्माण में योगदान करने के लिए भारत ने तीन अरब डॉलर से अधिक का जो निवेश किया, वह फिलहाल खतरे में है।
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