राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल
-जयशंकर गुप्त-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
सुप्रीम कोर्ट अब राजद्रोह कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई कर रहा है। सरकार से जवाब मांगा गया है। स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र का तो तकाजा है कि सरकार का रुख भी इस मामले में सकारात्मक ही रहना चाहिए। लेकिन अगर सरकार इस औपनिवेशिक कानून को बनाए रखने की जिद करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट स्वतः इस कानून को समाप्त कर इसके तहत निरुद्ध लोगों को रिहा करवा सकती है!
सुप्रीम कोर्ट ने अंग्रेजी राज में बने तकरीबन 151 साल पुराने राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर मोदी सरकार के सामने अजीब सी मुसीबत खड़ी कर दी है। अब सरकार को बताना है कि 1870 में बने जिस राजद्रोह कानून को बदलते समय के अनुरूप ब्रिटेन, अमेरिका सहित कई देशों ने कानून की किताबों से बाहर कर दिया है, आजाद भारत में इसे बनाए रखने का औचित्य क्या है! भारतीय दंड संहिता में धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून आज भी न सिर्फ कायम है बल्कि सत्ता विरोधियों के विरुद्ध इसके बेजा इस्तेमाल को लेकर विवाद भी उठते रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आजादी के 74 साल बाद भी 124ए की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करने के बाद तमाम राजनीतिक दल, बौद्धिक, विधि विशेषज्ञ तथा सामाजिक एवं मानवाधिकारों से जुड़े संगठनों ने कहा है कि लोकतांत्रिक भारत में इस कानून के लगातार दुरुपयोग को देखते हुए इसे रद्द कर देना चाहिए। लेकिन सरकार ने और सत्तारूढ़ दल ने भी इसके बारे में अभी तक साफ राय नहीं जाहिर की है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की अध्यक्षतावाली पीठ के सामने 124 ए की प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई के दौरान महान्यायवादी के के वेणुगोपाल ने कहा कि कानून को पूरी तरह से रद्द करने के बजाय इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए पैरामीटर तय कर दिशानिर्देश जारी किए जा सकते हैं। इससे पहले जुलाई 2019 में केंद्र सरकार ने संसद में अपने जवाब में कहा था कि राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निबटने के लिए इस कानून की जरूरत है।
लेकिन मैसूर के रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देनेवाली याचिका में कहा है कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमन्ना, ए एस बोपन्ना और हृषिकेश राय की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एक औपनिवेशिक कानून है जिसे अंग्रेजी राज में आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था। इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे लोगों को चुप कराने के लिए किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आजादी के 74 साल बाद भी क्या यह कानून जरूरी है?
मुख्य न्यायाधीश ने महान्यायवादी श्री वेणुगोपाल से कहा कि धारा 66्र को ही ले लीजिए, उसके रद्द किए जाने के बाद भी हजारों मुकदमे इस धारा के तहत दर्ज किए गए। हमारी चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह तो ऐसा ही है कि किसी बढ़ई को एक पेड़ काटने के लिए आरी दी जाए लेकिन वह पूरे जंगल को ही काटने लगे। उन्होंने कहा कि सरकार पुराने कानूनों को कानून की किताबों से निकाल रही है तो इस कानून को हटाने पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की राय में राजद्रोह कानून लोकतंत्र में संस्थाओं के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति उदय ललित की एक अन्य पीठ में भी धारा 124 ए को चुनौती देनेवाली छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ला और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम की याचिका विचाराधीन है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ धारा 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो सकता है। इसके अलावा अगर कोई शख्स किसी देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से उसका सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है। यह गैर जमानती अपराध है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है। इसके अतिरिक्त इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है।
हालांकि संविधान में अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली है। लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद-19 (2) के तहत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जा सकता जो देश की संप्रभुता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर के खिलाफ हो। तो फिर राजद्रोह कानून को बनाए रखने का औचित्य क्या है।
दरअसल, हमारी सरकारें समाज में शांति और कानून-व्यवस्था कायम रखने के नाम पर असहमति के स्वरों, सरकार, सरकारी फैसले और कानूनों का विरोध करनेवालों के विरुद्ध राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। हाल के वर्षों में 124 ए के तहत हुए मुकदमों की संख्या और इसके दुरुपयोग के मामले बढ़े हैं। अब तो इसका इस्तेमाल सरकार के विरोध में लिखने, बोलने वाले मीडिया के लोगों के विरुद्ध भी होने लगा है।
गौरतलब है कि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में धारा 124ए यानी राजद्रोह क़ानून को बरकरार रखने के पक्ष में फैसला देते हुए कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल ‘अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक ही सीमित होना चाहिए।’ सुप्रीम कोर्ट ने तब साफ किया था कि सरकार के कार्यों और फैसलों की आलोचना के लिए किसी नागरिक के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ऐसा करना भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
राजद्रोह कानून से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त फैसले और दिशानिर्देशों का संदर्भ दिया जाता है। उसके बाद भी कई अवसरों पर सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि लोकतंत्र में अगर किसी को सरकार के समर्थन का अधिकार है तो किसी को सरकार और उसके फैसलों की आलोचना करने का अधिकार भी है।
राजद्रोह कानून के मामले में वर्ष 2018 में भारतीय विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी करते हुए कहा था कि जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। विधि आयोग की राय में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर गैर-जिम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है’। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं अभी राज्यसभा के सदस्य रंजन गोगोई का इस मामले में कुछ और ही मानना है। उनकी राय में अगर किसी कानून का दुरुपयोग हो रहा है तो उसके रोकने के तरीके भी हैं, उसे रद्द करना ठीक नहीं। उन्होंने कहा कि अदालत सिर्फ किसी कानून की वैधानिकता का फैसला कर सकती है, उसकी जरूरत पर फैसला सरकार को करना चाहिए।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट अब राजद्रोह कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई कर रहा है। सरकार से जवाब मांगा गया है। स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र का तो तकाजा है कि सरकार का रुख भी इस मामले में सकारात्मक ही रहना चाहिए। लेकिन अगर सरकार इस औपनिवेशिक कानून को बनाए रखने की जिद करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट स्वतः इस कानून को समाप्त कर इसके तहत निरुद्ध लोगों को रिहा करवा सकती है!
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