शिक्षा नीति से जुड़ी चुनौतियां
-डा. वरिंदर भाटिया-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
हिमाचल, पंजाब इत्यादि देश के कुछ अग्रणी राज्य हैं जहां राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर संजीदगी है। इसका उद्देश्य 21वीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुकूल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बनाते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवंत समाज और वैश्विक महाशक्ति में बदलकर प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत शैक्षिक ढांचे को बेहतर बनाने का सरकार का प्रयास अपने आप में एक सराहनीय कार्य है, लेकिन इसके समक्ष कई चुनौतियां हैं, जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के तहत वर्णित किया जा सकता है। भारत में लगभग एक-तिहाई बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश बच्चे, जो स्कूल जाने में असमर्थ हैं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यकों और दिव्यांग समूहों से संबंधित हैं। एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बुनियादी ढांचे की कमी से संबंधित है।
यह आम तौर पर देखा गया है कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों में बिजली, पानी, शौचालय, चारदीवारी, पुस्तकालय, कंप्यूटर आदि की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा प्रणाली प्रभावित होती है। नई शिक्षा प्रणाली के सामने एक चुनौती शिक्षकों की कमी को दूर करना भी है। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार एकल शिक्षक के भरोसे बड़ी संख्या में स्कूल चल रहे हैं, जो शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। एक अन्य चुनौती उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाना है। यह उल्लेखनीय है कि बहुत कम भारतीय शिक्षण संस्थानों को शीर्ष 200 विश्व रैंकिंग में जगह मिलती है। यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति सरकार द्वारा शिक्षा प्रणाली में एक बड़े बदलाव का संकेत देती है, लेकिन इसमें कई चुनौतियां भी हैं।
उल्लेखनीय है कि इन चुनौतियों से निपटने का प्रयास पूर्व में भी किया जा चुका है, लेकिन उपलब्धियां सराहनीय नहीं रही हैं। इस संदर्भ में कुछ सुझावों को यहां लागू करने की आवश्यकता है। इस नीति के तहत शिक्षा अभियान को सफल बनाने के लिए सरकार, नागरिकों, सामाजिक संस्थाओं, विशेषज्ञों, अभिभावकों, समुदाय के सदस्यों को अपने स्तर पर काम करना चाहिए। शैक्षिक संस्थानों, कार्यान्वयन एजेंसियों, छात्रों और औद्योगिक क्षेत्रों के नेताओं के बीच एक सहजीवी संबंध स्थापित किया जाना चाहिए। इसलिए नवाचारों का एक पारिस्थितिकी तंत्र बनाया जा सकता है जिसमें रोजगार के बड़े अवसर पैदा हो सकते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि उद्योग शिक्षण संस्थानों से जुड़े हों। इसके अलावा कॉर्पोरेट प्रतिष्ठानों को विशेष महत्त्व के क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए और देश के डॉक्टरेट और पोस्ट-डॉक्टोरल प्रोग्रामों के अनुसंधान के लिए वित्त प्रदान करना चाहिए। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों, प्रतिष्ठित उद्योग संगठनों, मीडिया हाउस और पेशेवर निकायों को भारतीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों को रेटिंग देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। एक मजबूत रेटिंग प्रणाली विश्वविद्यालयों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएगी और उनके प्रदर्शन में सुधार करेगी। भारतीय विश्वविद्यालय अभी भी दुनिया के शीर्ष 200 रैंक वाले विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं हैं।
इस संबंध में विश्वविद्यालयों और शिक्षाविदों को संबंधित मानकों में आत्मनिरीक्षण और सुधार करना चाहिए। स्कूली शिक्षा में सुधार के अलावा शिक्षण और प्रशिक्षण विधियों में भी सुधार किया जाना चाहिए। यह भी देखना होगा कि सरकारें राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार कानूनों को बदलने के बाद आवश्यक अतिरिक्त बजट प्रदान करने और उसे खर्च करने में सक्षम हैं या नहीं। नई शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया है। विभिन्न शिक्षाविदों का मानना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश से भारतीय शिक्षण व्यवस्था महंगी होने की संभावना है। परिणामस्वरूप निम्न वर्ग के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। नई नीति के मुताबिक सरकार शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करेगी। हालांकि 1968 और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी यही बात कही गई थी, लेकिन वर्तमान समय में तस्वीर बेहद अलग है। दरअसल 2017-18 में भारत सरकार ने जीडीपी का महज 2.7 फीसदी ही शिक्षा पर खर्च किया। खुद भारत सरकार के अनुसार 2017-18 में हमने शोध कार्यों पर जीडीपी का महज 0.7 फीसदी खर्च किया। लिहाजा खर्च के मामले में सरकार इतनी बड़ी उछाल कैसे लाएगी, इस पर स्थिति साफ नहीं हो सकी है। उधर ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात पहुंचाने का लक्ष्य 26.3 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी रखा गया है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के मुताबिक भारत में प्रति एक लाख आबादी पर शोध करने वालों की संख्या महज 15 है, जबकि चीन इतनी ही संख्या में 111 बना रहा है।
सरकार ने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 3.5 करोड़ नई सीटें जोडने की बात कही है, लेकिन फिर वही सवाल है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार के पास क्या खाका है और सरकार इस लक्ष्य को कैसे हासिल करेगी? उच्च शिक्षा में यूजीसी-एआईसीटीई की जगह एक ही नियामक को लेकर भी विवाद है। जानकारों का मानना है कि इस नियामक की कमान केंद्र सरकार के हाथ में होगी, इसलिए इससे शिक्षा का केंद्रीयकरण होगा जिससे संस्थानों की स्वायत्तता की राह में रुकावट पैदा होगी। बच्चों को मातृभाषा या स्थानीय भाषा में पढ़ाने को लेकर भी कई तरह के सवाल और अनिश्चितताएं हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली जैसे केंद्र शासित प्रदेश में देश के अलग-अलग राज्यों से आए लोग रहते हैं। ऐसे में एक ही स्कूल में अलग-अलग मातृभाषा को जानने वाले बच्चे होंगे, लिहाजा सवाल है कि उन बच्चों का माध्यम क्या होगा? एक बड़ा सवाल अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को लेकर भी है, क्या ऐसे स्कूल स्थानीय भाषा वाले कांसेप्ट को अपनाने को तैयार होंगे। प्राइमरी में ही एक राज्य से दूसरे राज्य शिफ्ट करने वाले बच्चे का माध्यम न बदले, इसके लिए सरकार क्या उपाय करेगी? यह कुछ ऐसे बिंदु हैं जिन पर अभी काफी उहापोह का माहौल है। नई शिक्षा नीति द्वारा सरकार के लिए एक चुनौती यह भी होगी कि वर्तमान समय में व्यापारीकरण, व्यवसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है।
मंडी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है, जिसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है। परिणामतः शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है जिसमें छात्र धन के आधार पर इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और डॉक्टर आदि उपाधियों के लिए प्रवेश पाकर उच्च भावना से ग्रस्त और धनाभाव के कारण प्रवेश से वंचित हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं, जिससे असमानता की खाई बढ़ रही है। सामाजिक असंतुलन और विषमता इसका ही परिणाम है। सभी बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए मानना है कि इस नई शिक्षा नीति के सकारात्मक पहलू नकारात्मक पहलुओं की अपेक्षा अधिक हैं। मगर आगे की राह संघर्ष और चुनौतियों भरी है। सभी घोषणाओं को जमीन पर उतरने के लिए बुनियादी अवसंरचना की जरूरत होगी। इससे भी ज्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति को प्रबल करना होगा। नीति का क्रियान्वयन कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी शिक्षा के लिए आवंटित फंड का पूरा इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। शिक्षा में सुधार के लिए सबसे जरूरी यह है कि शिक्षण संस्थाओं की स्वायत्तता को हर कीमत पर कायम किया जाए। बहरहाल उम्मीद की जा रही है कि केवल कागजी खानापूर्ति के बजाय सही अर्थों में नीतियों को लागू करने की कोशिश की जाएगी।
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