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लेख - August 8, 2022

नि:शब्द अखबार

-निर्मल असो-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

देश की खबरों से बेखबर लोग भी जब खबर सुनाने लग जाएं, तो कानों के करीब आकर झूठ भी अपना रिश्तेदार लगता है। रिश्तेदारी की सत्यता के बजाय झूठ की हिफाजत का हुनर सीख लें, तो देश की अधिकांश जनता अपने जैसी हो सकती है। इसी जनता को उस दिन हैरानी तब हुई जब बीच चौराहे पर दो अखबारें आपस में झगडऩे लगीं। किसी को लगा किसी खबर की वजह से महाभारत शुरू हो रहा है, तो किसी ने सोचा कोई एक राम राज्य की तरफदारी में लड़ रही होगी। दोनों अखबारें सुंदर थीं, यकीनन सरकारी पोशाक में थीं। दोनों को देखकर कोई लाचारी या बीमारी नजर नहीं आ रही थी, बल्कि समाज हैरान था कि इस तरह की खुशहाली में कोई लड़ कैसे सकता है। अखबारों की लड़ाई देखने वाले बढ़ रहे थे। यूं भी अब अखबारें केवल लड़ती हुई ही अच्छी लगती, इसलिए पाठकों से कहीं अधिक तमाशबीनों के लिए बनाई जाती हैं। भीड़ में से किसी ने कहा देखो भाइयो-बहनों अगर अखबारें लड़ सकती हैं, तो हर खबर को योद्धा बनना पड़ेगा। यानी हर सूचना में झगड़े की कोई न कोई जड़ डाल दी जाए तो अखबार चौराहे पर और टीवी लोकतंत्र के हर पाये पर अचंभित करेगा। दरअसल दोनों अखबारों में आपसी होड़ खबरों के बजाय उस ताकत को लेकर हो रही थी, जिससे सरकार का अवलोकन सही-सही हो सके। एक अखबार ने अपनी छाती से चिपके सरकारी विज्ञापन पर हाथ फेर कर गौरवान्वित लहजे में कहा, ‘मेरी ताकत का एहसास नहीं हुआ है, तो तुम्हें अपना हर पन्ना और हर शब्द दिखाती हूं। यह जलवा यूं ही पैदा नहीं हुआ, इसके लिए मीडिया के संबंधों पर आजादी के बाद से काम कर रही हूं। मैं गिर-गिर के उठी हूं।

हर चुनाव और हर सरकार में गिरी, तब जाकर मेरे घुटने मजबूत हुए और अब घुटनों के बल चलकर भी मुझे यह फर्क नहीं पड़ता कि इनके साथ पत्रकारिता कितनी घिस रही है। इसलिए देश में जहां कहीं लाल निशान पैदा होता है, समझो मेेरे चरित्र ने कितना काम किया होगा।’ दूसरी अखबार को हैरानी हुई कि जिसके लिए वह आत्मसम्मानी हो रही थी, दरअसल उससे कहीं हटकर मीडिया का उत्तरदायित्व तो खैरात बनकर बंट रहा है। यहां तो सरेआम आंखों देखा हाल चल रहा है और जहां अखबार को देखकर सरकार की बोली, भाषा, संबोधन और सत्ता का गमछा पढ़ा जा रहा है। इस अखबार को भ्रम था कि इसकी वजह से देश चल रहा है। अन्ना आंदोलन में खूब चली थी, तो आज तक उसी दिशा में चलने की सोच रही है। अखबार ने उस दौर के कितने ही देश प्रेमियों, भ्रष्टाचार विरोधियों, राष्ट्रवादियों, तिरंगा प्रेमियों और सच बोलते लोगों को नेता बनाया था, इसी स्वाभिमान में इस अखबार ने सामने वाली से टक्कर ले ली, लेकिन उसे मालूम नहीं था कि सामने अन्ना आंदोलन के प्रेमियों की अखबार ही अड़ी थी। हिम्मत जुटाकर उसने कहा, ‘मैंने देश को बनाने के लिए समाज के हर नागरिक को उच्च विचार दिया। सत्ता का विरोध, विपक्ष को आक्रोश दिया, इसलिए सच्चे मायने में राष्ट्रवादी पत्रकारिता और लोकतांत्रिक अवतार हूं।’ कमोबेश सत्ता की तरह और सियासी गमछे के अंदाज में पहली अखबार ने लगभग ईडी की तरह पलटवार किया, ‘राष्ट्रवादी है, तो अपना मास्ट हैड दिखा- नहीं तो इधर देख किस रंग में हूं। मेरी छाती पर रोज छपते चित्रों को देखकर बता कि देशभक्ति और होती क्या है। खबर अब फ्यूजन है, इसलिए हर रोज मैं देश को नया स्वाद देती हूं।’ दूसरी अखबार ने देखा अधिकांश पाठक उसके साथ चोली से दामन तक चिपक रहे थे। पाठक से अंतरंग होना कितना मुश्किल है और अखबार को चलाए रखना इससे भी मुश्किल। उसने सामने देखा उसके बदन को काटकर कोई लिफाफे बना रहा था और उसमें किसी ताजा कटे हुए बकरे का मांस छुपा रहा था। अखबार के पास खुद को बताने के लिए शब्द नहीं थे।

 

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