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लेख - November 17, 2022

पराक्रम की पराकाष्ठा ‘रेजांगला युद्ध’

-प्रताप सिंह पटियाल-

-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-

‘ए मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’ सल्तनत, मौसिकी पर सात दशकों तक हुक्मरानी करने वाली भारत की मारूफ गुलुकारा लता मंगेशकर ने 27 जनवरी 1963 को दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में इस नगमे के जरिए सन् 1962 की भारत-चीन जंग के बलिदानी सैनिकों को श्रद्धांजलि पेश करके उस युद्ध की दर्दनाक दास्तां को भी बयान किया था। सुरों की मल्लिका मरहूम लता मंगेशकर का आंखें नम करने वाला यह तराना हर हिदोंस्तानी के जहन में आज भी सैनिकों के बलिदान का एहसास कराता है। चीन ने सन् 1950 में तिब्बत पर आक्रमण करके बुद्ध की तहजीब को कुचल कर वहां कब्जा जमाकर ‘माओ’ की लाल सल्तनत का पूर्ण निजाम नाफिज करके अपने प्राचीन दार्शनिक ‘संत जु’ के विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाने की तस्दीक कर दी थी, मगर चीन के शातिर इरादों को भांपने में भारत असफल रहा था। सन् 1962 में भारत का मित्र देश सोवियत संघ ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के मसले में उलझा था। उस वक्त चीन ने 20 अक्तूबर 1962 को 3488 कि. मी. लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करके भारत के लद्दाख, चुशूल तथा अरुणाचल प्रदेश के क्षेत्रों पर हमला करके युद्ध का ऐलान कर दिया था।

सैन्य इतिहास में हिमाचल के सपूतों ने रणभूमि में शौर्य के कई बेमिसाल शिलालेख लिखकर वीरभूमि को हमेशा गौरवान्वित किया है। 10 अक्तूबर 1962 को अरुणाचल क्षेत्र में मौजूद ‘त्सेंगजोंग पोस्ट’ पर चीनी सेना ने धावा बोल दिया था। हिमाचली शूरवीर ‘कांशीराम’ (9 पंजाब) अपने सैनिक साथियों सहित उस पोस्ट पर तैनात थे। 9 पंजाब के बहादुर जवानों ने चीनी हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया था, मगर कांशी राम ने चीनी सैनिक का हथियार छीनकर उसी से ड्रैगन के कई सैनिकों को जहन्नुम की परवाज पर भेजकर उस हमले को नाकाम करने में अहम किरदार निभाया था। दुश्मन का हथियार छीनकर शत्रु सैनिकों को मौत के घाट उतारने की उस युद्ध की वो पहली घटना थी। रणभूमि में अदम्य साहस का परिचय देने वाले सूबेदार मेजर कांशी राम को सेना ने ‘महावीर चक्र’ से सरफराज किया था। उसी युद्ध में 27 अक्तूबर 1962 को लद्दाख सेक्टर की ‘छांगला चौकी’ पर ‘लाहौल स्पीति’ के रणबांकुरे हवलदार ‘तेंजिन फुंचोक’ (7 मिलिशिया) ने चीन के पांच सैनिकों को हलाक करके शहादत को गले लगा लिया था। युद्ध में असीम शौर्य के लिए सेना ने तेंजिन फुंचोक को भी ‘महावीर चक्र’ (मरणोपरांत) से अलंकृत किया था। उस युद्ध में हिमाचल के 131 सपूतों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में सबसे बड़ी जंग ‘रेजांगला’ के महाज पर लड़ी गई थी। दक्षिणी लद्दाख के चुशूल सेक्टर में भारतीय सेना की ‘13 कुमाऊं’ बटालियन तैनात थी। 13 कुमाऊं की 120 जवानों की ‘सी’ कंपनी रेजांगला के मोर्चे पर मुस्तैद थी। युद्ध में उस कंपनी का नेतृत्व मेजर ‘शैतान सिंह’ ने किया था।

18 नवंबर 1962 को समूचा भारत दीपावली का पावन पर्व मना रहा था, मगर उसी दिन चीन की ‘पीपल लिबरेशन आर्मी’ के हजारों सैनिकों ने आधुनिक हथियारों से लैस होकर रेजांगला पोस्ट पर आक्रमण कर दिया था। चूंकि 13 कुमाऊं के बहादुर सैनिक रेजांगला में चीनी सेना के चार हमलों को नाकाम कर चुके थे। चीनी लाव लश्कर की भारी तादाद व विषम परिस्थितियों के चलते 13 कुमाऊं की उस कंपनी को अपनी पोजीशन से पीछे हटने का आदेश भी मिल चुका था। लेकिन राजपूत योद्धा मेजर शैतान सिंह भाटी ने पीछे हटने के बजाय रेजांगला के मोर्चे पर ड्रैगन की मंसूबाबंदी को खाक में मिलाने का विकल्प चुना था। 18 हजार फीट की बुलंदी पर लड़ी गई रेजांगला की उस भीषण जंग में चीन के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार कर 13 कुमाऊं की ‘सी’ कपंनी के 120 में से 114 शूरवीरों ने मातृभूमि की रक्षा में सर्वोच्च बलिदान दे दिया, मगर दुश्मन के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया था। रेजांगला के रण में तनी हुई संगीनों के साथ बलिदान हुए 13 कुमाऊं के सैनिकों के शवों को युद्ध के तीन महीने बाद बर्फ पिघलने पर फरवरी 1963 में उठाया गया था। चीनी सेना की लाशों पर शूरवीरता का रक्तरंजित मजमून लिखने वाले मेजर शैतान सिंह का पार्थिव शरीर भी उनकी मशीनगन के साथ आक्रामक मुद्रा में ही मिला था। उंगलियां ट्रिगर पर मौजूद थीं। 18 नवंबर 1962 को रेजांगला में आखिरी गोली, आखिरी जवान व आखिरी सांस तक लड़ी गई भीषण जंग की शौर्यगाथा सैन्य इतिहास में एक नजीर बन गई। 1962 की जंग में चीन को सबसे गहरा जख्म देने वाले रेजांगला के नायक मेजर शैतान सिंह को युद्ध में उच्चकोटी के सैन्य नेतृत्व के लिए सर्वोच्च सैन्य पदक ‘परमवीर चक्र’ (मरणोपंरात) से नवाजा गया था।

रेजांगला युद्ध में चीनियों को हलाक करके वीरगति को प्राप्त हुए ‘सिंह राम’ व ‘गुलाब सिंह’ दोनों ‘वीर चक्र’ सगे भाई थे। रेजांगला की यूद्धभूमि पर 1962 के भारतीय योद्धाओं के शौर्य पराक्रम व बलिदान की खुशबू आज भी महसूस की जा सकती है। चीनी सेना ने रेजांगला युद्ध से वापस लौटते वक्त राइफलों की संगीने रणभूमि में गाडक़र 13 कुमाऊं के योद्धाओं के शौर्य को सलाम किया था। स्मरण रहे रेजांगला की जंग विश्व के दस सबसे बड़े सैन्य संघर्षों में शुमार करती है। रेजांगना युद्ध की हकीकत जानने के लिए बनी कमेटी में ‘रेडक्रॉस’ का एक अमेरिकी अधिकारी भी शामिल था। रक्षा मंत्रालय ने ‘रेजांगला युद्ध स्मारक’ का पुनर्निर्माण करवाकर पिछले वर्ष इसे रेजांगला के योद्धाओं को समर्पित किया था। भारतीय सेना ने सन् 1967 के ‘नाथुला सैन्य संघर्ष’ में चीन के 388 सैनिकों को हलाक करके डै्रगन का 1962 का भ्रम दूर कर दिया था, मगर 1962 की जंग के इंतकाम का अज्म आज भी सेना के जहन में बरकरार है। यदि मुल्क की सियासी कयादत इच्छाशक्ति दिखाए तो विश्व की सर्वोत्तम भारतीय थलसेना सरहदों की बंदिशों को तोडक़र डै्रगन का भूगोल बदलने में गुरेज नहीं करेगी। अत: हमारे हुक्मरानों को समझना होगा कि शांति का मसीहा बनकर अमन की पैरोकारी करने के लिए एटमी कुव्वत से लैस सैन्य महाशक्ति बनना भी जरूरी है। रेजांगला दिवस पर 1962 के योद्धाओं को देश शत-शत नमन करता है।

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