चुनाव में प्रत्याशी अहम् या नेता….?
-ओमप्रकाश मेहता-
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
हमारे प्रजातंत्र की बुजुर्गीयत के दौरान आज भारत के आम मतदाताओं से यह सवाल पूछा जा रहा है कि लोकतंत्र के चुनाव में प्रत्याशी अहम् होता है या किसी पार्टी का सर्वोच्च नेता? यह सवाल इसलिए उठाया गया क्योंकि पिछले पचहत्तर सालों में भारत के आम मतदाताओं ने प्रत्याशी के गुण-दोष को परख कर मतदान करने की अपेक्षा, पार्टी विशेष के सर्वोच्च नेता के नाम पर मतदान किया, आजादी के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू उसके बाद इंदिरा जी फिर अटल-अडवनी जी और अब माननीय नरेन्द्र मोदी जी के नाम पर वोट डाले जा रहे है, अब ऐसे में मुख्य सवाल यह पैदा हो रहा है कि क्या पचहत्तर सालों में भी हमारा आम मतदाता राजनीतिक व सामाजिक रूप से विकसित नहीं हुआ? क्या जिन सर्वोच्च नेताओं के नाम पर कथित अयोग्य नेताओं को चुनावों में चुना जाता है, क्या ये सर्वोच्च नेता आम मतदाताओं के सुख-दुःख के साथी होगें?
….और फिर आपके द्वारा चुने गए जिन जन प्रतिनिधियों को आपके साथ रहना है, आपकी जिनसे हर समय सहायता की अपेक्षाएं रहती है, क्या ये जन प्रतिनिधि वास्तव में जन प्रतिनिधि है या पार्टी के प्रतिनिधि? भारतीय लोकतंत्र के अभी तक हर दृष्टि से सर्वगुण सम्पन्न नही हो पाने का एक यही मुख्य कारण है, आज भी हमारे देश में योग्य प्रत्याशी की परख नहीं की जाती, बल्कि राजनीतिक दल को महत्व देकर अयोग्य व गैर अनुभवी लोगों को जनसेवा की अहम् जिम्मेदारी सौंपी जा रही है और ये चुनाव जीतने के बाद स्वार्थ की राजनीति में लिप्त हो जाते है तथा अपनी राजनीतिक सत्ता को दीर्घायु बनाने में जुट जाते है और इन्हें इस ओहदे तक पहुंचाने वाले आम मतदाता को पूरी तरह ‘‘भगवान भरोसे’’ छोड दिया जाता है, फिर इनकी याद आती है सिर्फ पाँच साल बाद ही?
मेरी इस दलील को यदि हमारे प्रजातंत्र का सबसे बड़ा दोष मान लिया जाए तो कतई गलत नहीं होगा? इसमें जहां राजनीति ने भोले भाले मतदाताओं का पूरी तरह शोषण किया, वही मतदाता इतनी लम्बी अवधि के बाद भी देश व प्रजातंत्र के प्रति अपने मूल दायित्व को समझ नहीं पाया और अपनी व्यक्तिगत व पारिवारिक उलझनों को सुलझाने में व्यस्त रहा और उसका परिणाम यह हुआ कि राजनीति ने पूरे देश को अपना ‘‘कलेवा’’ बनाकर उसे निगल लिया और देश आगे बढ़ने के बजाए या तो पीछे चल गया या अपनी जगह स्थिर हो गया। आज की भी वास्तविकता यह है कि हम व हमारे नेता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश के अतीत का गुणगान कर उसे महिमा मंडित करते है, वर्तमान को कोई भी देखने को तैयार नहीं, फिर भविष्य का तो सवाल ही कहां पैदा होता है?
आज हम चाहे जीवन उपार्जन की बौद्धिकता में चाहे कितना ही आगे बढ़ गए हो, किंतु राजनीतिक बुद्धि स्तर पर वही है, जहां आजादी के समय थे, मतलब आज भी हम हमारे जनप्रतिनिधि चुनते समय राजनीतिक दल के नेता को महत्व देकर उसके प्रत्याशी का चयन करते है जबकि हमारी दृष्टि हमारे वास्तविक रूप से सुख-दुःख के समय साथ देने वाले व हमेशा साथ खड़े रहने वाले जन प्रतिनिधि पर होनी चाहिए, अर्थात् हम प्रत्याशी को उसके गुण-दोष के आधार पर नहीं बल्कि उसकी राजनीतिक पहुंच व उसके राजनीतिक दल को महत्व देकर मतदान करते है और फिर आधार पर चुनावों में राजनीतिक दल जीतकर सत्ता आ जाते है और आम मतदाता को भुला देते है, आजादी के बाद राजनीतिक दल विशेष की लम्बे समय तक सरकारें चलने का एकमात्र यही कारण है, क्योंकि हमने अभी तक राजनीतिक दल विशेष के नेता को वोट दिया, अपने हितैषि प्रत्याशी को नहीं और आज भी यही चलन जारी है और इसी के आधार पर सरकारे बनती है, जो देश की बजाए अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देती है। अभी समय है…. हमें इस चलन को खत्म कर नेता नहीं देश के बाद में सोचना होगा, वर्ना हमारा देश का प्रजातंत्र दीर्घायु होने की जगह ‘अल्पायु’ होकर रह जाएगा।
सिख धर्म सिखाता है कि एक परिवार के रूप में मनुष्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं: अमेरिकी नेता
वाशिंगटन, 11 अप्रैल (ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस)। न्यूयॉर्क के एक प्रभावशाली नेता ने वैसाखी स…