किसान आंदोलन संसद तक!
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
अब किसान आंदोलन का मुद्दा संसद के भीतर भी गूंजेगा और बाहर भी रोष जताएगा। किसान आंदोलन को करीब 8 माह गुजर चुके हैं। भारत सरकार के साथ किसान प्रतिनिधियों की 11 दौर की बातचीत भी हो चुकी है। एक बार केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी किसानों से संवाद कर चुके हैं। सरकार आंदोलन को लेकर बेपरवाह और निश्चिंत है, क्योंकि उसका भीतरी आकलन है कि आंदोलन बिखर कर नाकाम हो चुका है। इधर-उधर विरोध-प्रदर्शन कर अराजकता और भाजपा-विरोधी राजनीति के अलावा, किसान आंदोलनकारियों के पास कोई ठोस मुद्दा शेष नहीं है। सरकार कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि कृषि के तीनों विवादास्पद कानून न तो वापस लिए जाएंगे और न ही रद्द किए जाएंगे। खरीफ की फसलों के लिए भारत सरकार के कृषि मूल्य आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी की है। यह भी किसानों की अपेक्षाओं से कमतर हो सकती है। उप्र में ही गन्ना मिलों को किसानों के 8000 करोड़ रुपए से भी अधिक का भुगतान चुकाना है। प्रधानमंत्री मोदी के सार्वजनिक आश्वासन के बावजूद किसानों को उनकी उपज का पैसा नहीं मिला है और न ही 15 दिन बीत जाने के बाद भुगतान पर ब्याज की व्यवस्था लागू की गई है।
हालांकि यह किसान आंदोलन का बुनियादी मुद्दा नहीं है। अब नई रणनीति के मुताबिक, किसान संसद भवन का घेराव करना चाहते हैं। मानसून सत्र 19 जुलाई से शुरू हो चुका है। किसानों की रणनीति है कि हररोज 200 आंदोलनकारी दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मार्च करके संसद भवन तक पहुंचेंगे और बाहर धरना देंगे। यह विरोध-प्रदर्शन 26 जनवरी के ‘टै्रक्टर मार्च’ की तरह उपद्रव और हिंसा में तबदील न हो जाए, इस आशंका के मद्देनजर दिल्ली पुलिस ने किसानों को इजाजत नहीं दी है। संसद के कुछ किलोमीटर के दायरे में धरना, प्रदर्शन निषिद्ध हैं, तो किसानों को संसद तक पहुंचने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा और पुलिस अधिकारियों के बीच संवाद जारी है। यदि पुलिस बहुत ज्यादा विनम्र हुई, तो जंतर-मंतर पर किसानों को धरना-प्रदर्शन की मंजूरी दी जा सकती है। उसकी भी समय-सीमा और शर्तें तय की जा सकती हैं, लेकिन किसानों को संसद का घेराव करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि यह सुरक्षा और संप्रभुता का सवाल है। यदि आंदोलनकारी किसान किसी भी तरह संसद परिसर में घुसने में कामयाब हुए, तो उसे ‘संसद पर आक्रमण’ माना जाएगा। संसद देश की संप्रभुता की ही प्रतीक है। विपक्षी खेमे से कांग्रेस, अकाली दल और आप आदि ने किसान आंदोलन के मुद्दे पर संसद में ‘कामरोको प्रस्ताव’ के नोटिस दिए हैं। चूंकि पंजाब में विधानसभा चुनाव फरवरी, 2022 से पहले होने हैं, लिहाजा यह मुद्दा वहां की राजनीति के लिए बेहद संवेदनशील है।
अकाली दल को बसपा और सीपीएम ने ‘कामरोको प्रस्ताव’ पर समर्थन की घोषणा की है। लोकसभा में यह स्पीकर का विशेषाधिकार है कि वह ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार करें अथवा नहीं। अलबत्ता वह किसी और नियम के तहत किसान आंदोलन पर चर्चा करवा सकते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने विपक्ष के सांसदों के लिए ‘पीपल्स व्हिप’ जारी की है, जिसके तहत सांसदों को सदन से वॉकआउट न करने का आग्रह किया गया है। ऐसी ‘व्हिप’ की कोई भी संसदीय वैधता नहीं है। किसान नेताओं का अहंकार संतुष्ट हो सकता है। किसान आंदोलन के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीन सदस्यों की जो समिति गठित की थी, उसने बंद लिफाफे में क्या अनुशंसाएं की हैं, उन्हें भी सार्वजनिक नहीं किया गया है और न ही केंद्र सरकार पर कोई दबाव है। किसान सिंघु बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर पर धरना देते रहें या जंतर-मंतर पर प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शन करें, इससे समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता। संसद में किसान आंदोलन के अलावा, कोरोना वायरस की दूसरी लहर, महंगाई, बेरोजगारी, फोन टैपिंग के जरिए मंत्रियों, पत्रकारों और वकीलों की जासूसी, टीकाकरण नीति आदि भी महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। सरकार को 23 विधेयक भी पारित कराने हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तीखे और धारदार सवाल पूछने के साथ-साथ सार्थक बहस की भी उम्मीद जताई है, लेकिन पहले दिन ही उनके संबोधन के दौरान लोकसभा में जबरदस्त हंगामा मचता रहा। बहरहाल संसद को सिर्फ किसान आंदोलन तक समेट कर नहीं रखा जा सकता।
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