अफगानिस्तान में तालिबानः आखिर क्या है भारत की खामोशी की कूटनीति?
-दयाशंकर शुक्ल सागर-
-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-
कल तक भारत तालिबान को ‘आतंकी’ कहता था और तालिबान को ‘आतंकी’ कहना भारत की कूटनीति का हिस्सा था, क्योंकि तालिबान ने पुरानी सदी के अंतिम वर्षों के अपने पहले राज में भारत के खिलाफ कंधार विमान अपहरण कांड में जो हरकतें की थीं वो कतई माफी लायक नहीं थीं।
ये वही तालिबानी थे जिन्होंने काठमांडू से एक इंडियन एयरलाइंस की उड़ान के आतंकी अपहर्ताओं को सजा देने के बजाए उन्हें भागने की इजाजत दी थी। इसलिए आज भारत मौन है और ‘वेट एंड वॉच’ की रणनीति पर काम कर रहा है।
मोदी विरोधी शोर मचा रहे हैं कि प्रधानमंत्री तालिबान पर अपना स्टैंड साफ करें। हालांकि वे भी बखूबी जानते हैं कि मोदी भाजपा के सर्वोच्च नेता नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री हैं। खैर, विपक्ष का काम ही राजनीति करना है और ये आम जनता भी खूब समझती है, इसलिए फारूख अब्दुल्ला और ओबैसी सरीखे नेताओं के बयानों को कोई गंभीरता से नहीं लेता। लेकिन सच तो ये है कि अफगानिस्तान मसले पर भारत बहुत मुश्किल हालात में है।
तालिबान को लेकर भारत की समस्याएं
तालिबान को लेकर भारत की तीन बड़ी समस्याएं हैं। एक उसे डर है कि तालिबान के राज में अफगानिस्तान की जमीन भारत विरोधी आतंकवाद का अड्डा न बन जाए जहां से वो कश्मीर में आसानी से अराजकता फैला सकता है, क्योंकि सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकियों का मक्का है तो अफगानिस्तान आतंकियों की जन्नत है।
दूसरा संकट ये है कि चीन तालिबान के साथ अफगानिस्तान में काम करके सीमा पर अपने पदचिह्न का विस्तार कर सकता है। दरअसल, चीन वखान कॉरिडोर के जरिए अफगानिस्तान को पाकिस्तान से जोड़ने के लिए एक रास्ता बनाना चाहता है। ये रास्ता आखिर में चीन में आकर खत्म होगा। ये वही सदियों पुराना ‘सिल्क रूट’ है जिससे होते हुए 13वीं सदी में मार्को पोलो चीन गया था।
दुनिया को फतह करने सिकंदर भी कभी यहीं से गुजरा था। मैंने पढ़ा है इस प्राचीन रास्ते पर आज भी ठहरने के लिए सरायों के खंडहर और बुद्ध की मूर्तियों के निशान दिखाई देते हैं। इसी रास्ते को चीन से भूमध्य सागर तक जोड़कर चीन महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहा है।
भारत की तीसरी बड़ी समस्या पाकिस्तान है जिसने तन, मन धन से तालिबान की मदद कर उसे सत्ता तक पहुंचाया। अब वो लालची मुनीम की तरह तालिबान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की स्थिति में है।
ऐसे विकट हालात में भारत की चिन्ता लाजमी है। खासतौर से तब जब अमेरिका पर भरोसा करके भारत ने अफगानिस्तान में तीन अरब डॉलर, डैम, स्कूल और संसद भवन बनाने में निवेश कर दिए। जबकि अफगानिस्तान में अब संसद भवन का कोई मतलब नहीं रह गया है। अमेरिका जो अब तालिबान के आगे खुद हथियार डाल चुका है।
रूस, अफगानिस्तान और पाकिस्तान
उधर रूस, चीन और पाकिस्तान मिलकर खेल कर रहे हैं। याद कीजिए मार्च के महीने में तालिबान को लेकर एक बैठक रूस ने मास्को में बुलाई थी। ये बैठक ‘ट्रोइका प्लस’ के नाम से मशहूर है। रूस ने कहा कि इस बैठक में वे देश शामिल हैं जो ‘स्टेकहोल्डर’ हैं। इस बैठक में गनी की अफगान के अलावा तालिबान भी आए थे।
रूस ने अमेरिका को बुलाया, चीन और पाकिस्तान को दावत दी। लेकिन भारत को न्योता नहीं दिया। भारत के अफगानिस्तान में 3 अरब डॉलर लगे हैं। वो अफगानिस्तान का पांचवा सबसे बड़ा मददगार देश था। पर भारत को इस निवेश से कहीं ज्यादा चिंता ये थी कि अफगानिस्तान के तालिबानी राज में कहीं भारत आतंकवाद के ख़िलाफ अपनी सामरिक बढ़त न खोदे। फिर भी रूस ने भारत को ‘स्टेकहोल्डर’ नहीं माना। भारत ने इस पर रूस से अपनी नाराजगी भी जताई थी।
विवाद बढ़ने पर रूसी दूतावास ने सफाई दी कि ऐसा नहीं है अफगानिस्तान में भारत अहम भूमिका अदा कर रहा है और भारत इससे जुड़ी वार्ता में अहम भागीदार है। 11 अगस्त को कतर की राजधानी दोहा में एक बार फिर ‘विस्तारित ट्रोइका’ बैठक हुई। इस बैठक में भी भारत को आमंत्रित नहीं किया गया था। भारत के लिए ये बेहद अपमानजनक था क्योंकि रूस से उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
भारत, रूस और तालिबान
दरअसल, रूस लगातार भारत पर ये दबाव डाल रहा था कि भारत अब अपनी अफगानिस्तान नीति में बदलाव करे और तालिबान की ताकत को समझे। भारत तालिबान पर अपने पुराने स्टैंड से ‘यू टर्न’ ले ले। बीती 20 जुलाई को रूसी समाचार एजेंसी तास ने तो जामिर काबुलोव के हवाले से साफ कह दिया कि भारत इस वार्ता में इसलिए शामिल नहीं हो पाया क्योंकि तालिबान पर उसका कोई प्रभाव नहीं है।
जबकि अवसरवादी चीन ने साफ कह दिया कि ‘अफगान तालिबान एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और मिलिट्री ताकत है। कथित ट्रोइका की हरकतें देखकर भारत ने अपने कूटनीति का रुख सीधे तालिबान से सीधी बातचीत की ओर मोड़ दिया।
इस काम में भारत को कामयाबी भी मिली और कतर में तालिबान के राजदूत शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनिकजई ने हिन्दुस्तानी राजदूत दीपक मित्तल से सम्पर्क साधा। शेर मोहम्मद के भारत से पुराने संबंध रहे हैं। इन्होंने नब्बे के दशक में बतौर अफगानी सैनिक भारत में सैन्य ट्रेनिंग ली है।
इस बातचीत में तालिबानी राजदूत ने भारत के हित सुनिश्चित करने का वादा भी किया है। उधर भारत के बढ़ते दबाव को देखते हुए रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लवरोफ ने अफगानिस्तान पर जारी ट्रॉइक प्रारूप में भारत और ईरान को भी शामिल किया जाने के संकेत दिए, पर साफ-साफ अब भी कुछ नहीं कहा है।
भारत की कूटनीति कामयाब रही तो हो सकता है कि ‘ट्रोइका प्लस’ की अगली बैठक में भारत और ईरान भी शामिल कर लिया जाए। अगर ऐसा होता है तो तालिबान से भारत के रिश्ते के बारे में हालात थोड़े और साफ होंगे। ताबिलबान जानता है कि भारत एक शक्तिशाली देश है।
सारी दुनिया में उसका असर बढ़ रहा है। अफगानिस्तान में भारत ने पैसा हथियारों में नहीं वहां की तरक्की में लगाया है। तालिबान को अगर अफगानिस्तान में लम्बे वक्त तक सत्ता चलानी है तो उसे भारत का साथ चाहिए होगा। कई तालिबानी नेता भारत और अफगानिस्तान के पुराने दोस्ताना रिश्ते का लिहाज करते हैं।
बताते चलें कि कई तालिबानी नेता तो भारत के कॉलेजों में पढ़े हैं। दुनिया अगर कुछ शांति की शर्तों पर तालिबान को मान्यता देती है तो भारत उससे अलग नहीं हो सकता। लेकिन ये सब इतनी जल्दी नहीं होने वाला। वेट एंड वॉच की नीति अभी लम्बी चलेगी, क्योंकि तालिबान को भी खुद को साबित करने के लिए वक्त देना होगा। सारी दुनिया की कूटनीति ऐसे ही काम करती है, इसीलिए अफगानिस्तान के हर घटनाक्रम पर नजर गड़ाए रहिए और अफगानिस्तान के लिए खुद से दुआ कीजिए।
(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण)ः यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।)
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